Shri Kanakadhara Stotra
कनकधारा स्तोत्रम – अङ्गम हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती-
ऐसा माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने देवी लक्ष्मी की स्तुति करने और एक गरीब महिला के घर में धन की वर्षा करने के लिए श्री कनकधारा स्तोत्र की रचना की थी, जिसने उन्हें भिक्षा के रूप में आंवला फल दिया था। कनक का अर्थ है सोना और धारा का अर्थ है धारा।
यह घटना अक्षय तृतीया को हुई थी। आदि शंकराचार्य की आयु 8 वर्ष थी। इस मंत्र को आरंभ करने के लिए सबसे अच्छा दिन: शुक्रवार या कोई भी पूर्णिमा का दिन।
अङ्गम हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती,
भृङ्गाङ्गगनेव मुकुलाभरणं तमालम् ।
अङ्गीकृताखिलविभूतिरपाङ्गलीला,
मांगल्यदास्तु मम मंगलदेवतायाः ।।१।।
जैसे भँवरे अधखिले पुष्पों से अलंकृत तमाल के पेड़ का आश्रय लेते हैं , उसी प्रकार जो भगवान् विष्णु के अंगों पर सदैव पड़ती रहती है, जिसमें सभी ऐश्वर्यों का निवास है, सम्पूर्ण मंगलों की अधिष्ठात्री भगवती देवी महालक्ष्मी की वह कृपादृष्टि दृष्टि मुझ पर मंगलदायी हो।
मुग्धा मुहुर्विदधती वडने मुरारेः,
प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि।
माला दृशोर्मधुकरीव महोत्पले या,
सा में श्रियं दिशतु सागरसम्भवायाः ।।२।।
जैसे भ्रमरी (भँवरे) कमल के पत्तों पर मंडराते रहती हैं, उसी प्रकार जो भगवान हरि के मुखारविंद की ओर प्रेमपूर्वक जाकर लज्जा के कारण लौट आती है, समुद्र कन्या देवी लक्ष्मी की वह मनोहर दृष्टि मुझे धन-संपत्ति प्रदान करे।
विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षम्
आनन्दहेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि।
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्धम्,
इन्दीवरोदरसहोदरमिन्दिरायाः ।।३।।
जो सम्पूर्ण देवताओं के राजा इंद्र के पद का वैभव विलास देने में समर्थ हैं, श्री भगवान् हरि को आनंदित करने वाली हैं तथा जो नीलकमल के भीतरी भाग के समान मनोहर दिखाई पड़ती हैं उन देवी लक्ष्मी के अधखुले नेत्रों की क्षण भर के लिए मुझ पर भी अवश्य पड़े।
आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्दम-
आनदकंदमनिमेषमनङ्ग-तन्त्रम ।
आकेकरस्थितकनीनि-कपक्ष्मनेत्रं,
भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः ।।४।।
जिसकी पुतली एवं भौंहें काम के वशीभूत हो अर्ध विकसित एकटक नयनों को देखने वाले आनंदकंद सच्चिदानंद भगवान मुकुन्द को अपने सन्निकट पाकर किंचित तिरछी हो जाती है। ऐसे शेषशायी भगवान विष्णु की अर्द्धंगिनी श्री लक्ष्मी जी के नेत्र हमें प्रभूत धन-संपत्ति प्रदान करने वाले हों।
बाह्वन्तरे मधुजितः श्रितकौस्तुभे या,
हारावलीव हरिनीलमयी विभाति।
कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला,
कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः ।।५।।
जिन श्री हरि के कौस्तुभमणि से वशीभूत वक्षस्थल में इन्द्रनीलमय हारावली के समान सुशोभित होती है तथा उन भगवान के भी चित्त मे काम अर्थात स्नेह फैलाने वाली कमलवासिनी देवी लक्ष्मी की कटाक्ष माला मेरा मंगल करे।
कालाम्बुदालिललितोरसि कैटभारेर-
धाराधरे स्फुरति या तडिदङ्गनेव।
मातुः समस्तजगतां महनीयमूर्तिर-
भद्राणि में दिशतु भार्गवनन्दनायाः ।।६।।
जिस प्रकार मेघों की घनघोर घटा में बिजली चमकती है उसी प्रकार कैटभ दैत्य के शत्रु भी विष्णु भगवान के काले मेघों के समान मनोहर वक्ष:स्थल पर आप विद्युत के समान देदीप्यमान होती हैं तथा जो समस्त लोकों की माता, भार्गव-पुत्री भगवती श्री लक्ष्मी की पूजनीयामूर्ति मुझे कल्याण प्रदान करे।
प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत्प्रभावान्,
मांगल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन।
मय्यापतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्धं
मन्दालसं च मकरालयकन्यकायाः ||७||
समुद्रकन्या लक्ष्मी का वह मंदालस, मंथर, अर्धोंन्मीलित चंचल दृष्टि के प्रभाव से कामदेव ने मंगलमूर्ति भगवान मधुसूदन के हृदय में प्राथमिक (मुख्य) स्थान प्राप्त किया था। वही दृष्टि यहां मेरे ऊपर पड़े।
दद्याद् दयानुपवनो द्रविणाम्बुधाराम
अस्मिन्नकिंचनविहङ्गशिशौ विषण्णे |
दुष्कर्मघर्ममपनीय चिराय दूरं
नरायणप्रणयिनीनयनाम्बुवाहः ||८||
भगवान नारायण की प्रेमिका लक्ष्मी का नेत्ररूपी मेघ, दाय रूपी अनुकूल वायु से प्रेरित होकर दुष्कर्म रूपी धाम को दीर्घकाल के लिए परे हटाकर विषादग्रस्त मुझ दीन-दुखी सदृश्य जातक पर धनरुपी जलधारा की वर्षा करे।
इष्टा विशिष्ट्मतयोऽपि यया दर्याद्र-
दृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते |
दृष्टिः प्रहृष्टकमलोदरदीप्तिरिष्टां
पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः ||९||
विलक्षण मतिमान मनुष्य जिनके प्रीतिपात्र होकर उनकी कृपा दृष्टि के प्रभाव से स्वर्ग पद को अनायास ही प्राप्त कर लेते हैं, उन्हीं कमलासना कमला लक्ष्मी की वह विकसित कमल गर्भ के सदृश्य कान्तिमती दृष्टि मुझे मनोSभिलाषित पुष्टि-सन्तत्यादि वृद्धि प्रदान करें।
गीर्देवतेति गरुणध्वजसुन्दरीति
शाकम्भरीति शशिशेखरवल्ल्भेति।
सृष्टिस्थितिप्रलयकेलिषु संस्थितायै
तस्मै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै।।१०।।
जो भगवती लक्ष्मी वृष्टि-क्रीड़ा के अवसर पर वाग्देवता अर्थात ब्रह्म शक्ति के स्वरूप में विराजमान होती है और पालन-क्रीड़ा के समय पर भगवान गुरुड़ ध्वज अथवा विष्णु भगवान सुंदरी पत्नी लक्ष्मी (वैष्णवी शक्ति) के स्वरूप में स्थित होती है तथा प्रयल लीला के समय शाकंभरी (भगवती दुर्गा) अथवा भगवान शंकर की प्रिय पत्नी पार्वती (रुद्रशक्ति) के रूप में विद्यमान होती है उन त्रिलोक के एकमात्र गुरु भगवान विष्णु की नित्ययौवन प्रेमिका भगवती लक्ष्मी को मेरा नमस्कार है।
श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभकर्मफलप्रसूत्यै
रत्यै नमोऽस्तु रमणीयगुणार्णवायै।
शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै
पुष्टयै नमोऽस्तु पुरषोत्तमवललभाय।।११।।
हे लक्ष्मी! शुभकर्म फलदायक! श्रुति स्वरूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों के समुद्र स्वरूपा रति के रूपा में स्थित आपको नमस्कार है। शतपत्र कमल-कुंज में निवास करने वाली शक्ति स्वरूपा रमा को नमस्कार है तथा पुरुषोत्तम श्री हरि की अत्यंत प्राणप्रिय पुष्टि-रूपा लक्ष्मी को नमस्कार है।
नमोऽस्तु नालिकनिभाननायै
नमोऽस्तु दुग्धोदधिजन्मभूत्यै।
नमोऽस्तु सोमामृतसोदरायै
नमोऽस्तु नारायणवाल्ल्भायै।।१२।।
कमल के समान मुखवाली लक्ष्मी को नमस्कार है। क्षीर समुद्र में उत्पन्न होने वाली रमा को प्रणाम है। चंद्रमा और अमृत की सहोदर बहन को नमस्कार है। भगवान नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी को नमस्कार है।
सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि
साम्राज्यदानविभवानि सरोरूहाक्षि।
त्वद्-वन्दनानि दुरिताहरणोद्तानि
मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये।।१३।।
हे कमलाक्षि! आपके चरणों में की हुई स्तुति ऐश्वर्यदायिनी और समस्त इंद्रियों को आनन्दकारिणी है तथा साम्राज्य अर्थात पूर्णाधिकार देने में सर्वथा समर्थ एवं संपूर्ण पापों को नष्ट करने में उद्यत है। माता, मुझे आपके चरण कमलों की वन्दना करने का सदा शुभ अवसर प्राप्त होते रहे।
यत्कटाक्षसमुपासनाविधिः
सेवकस्य सकलार्थसम्पदः।
सन्नोती वचनाङ्गमानसैस
त्वां मुरारीहृदयेश्वरीम भजे।।१४।।
जिनके कृपा-कटाक्ष (तिरक्षी चितवन) के लिए की गई उपासना (आराधना), सेवक (उपासक) के लिए समस्त मनोरथ और संपत्ति का विस्तार करती है, उस भगवान मुरारी की हृदयेश्वरी लक्ष्मी का मैं मन, वचन और काया से भजन करता हूं।
सरसिजनिलये सरोजहस्ते
धवलतमांशुकगन्धमाल्येशोभे।
भगवती हरिवल्ल्भे मनोज्ञे
त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यं।।१५।।
जिनके कृपा-कटाक्ष (तिरक्षी चितवन) के लिए की गई उपासना (आराधना), सेवक (उपासक) के लिए समस्त मनोरथ और संपत्ति का विस्तार करती है, उस भगवान मुरारी की हृदयेश्वरी लक्ष्मी का मैं मन, वचन और काया से भजन करता हूं।
दिघस्तिभिः कनककुम्भमुखावसृष्ट –
स्वर्वाहिनीविमलचारुजलाप्लुताड्ंगीम।
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष –
लोकाधिनाथगृहिणीममृताब्धिपुत्रीम।।१६।।
दिग्गजों के द्वारा कनक कुंभ (सुवर्ण कलश) के मुख से पतित आकाशगंगा के स्वच्छ, मनोहर जल से जिस (भगवान) के श्री अंग का अभिषेक (स्नान) होता है उस समस्त लोकों के अधीश्वर भगवान विष्णु पत्नी, क्षीर सागर की पुत्री, जगन्माता लक्ष्मी को मैं प्रात:काल नमस्कार करता हूं।
कमल कमलाक्षवल्ल्भे
त्वं करुणापुरतरङ्गितैरपाङ्गै।
अवलोकय मामकिंचनानाम
प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः।।१७।।
हे कमलनयन भगवान विष्णु प्रिय लक्ष्मी! मैं दीन-हीन मनुष्यों में अग्रमण्य हूं इसलिए आपकी कृपा का स्वभाव सिद्ध पात्र हूं। आप उमड़ती हुई करुणा के बाढ़ की तरल तरंगों के सदृश्य कटाक्षों द्वारा मेरी दिशा में अवलोकन कीजिए।
स्तुवन्ति ये स्तुतीभिरमूभिरन्वहं
त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरम रमाम।
गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो
भवन्ति ते भुवि बुधभाविताशयाः।।१८।।
जो मनुष्य इन स्तोत्रों के द्वारा नित्य प्रति वेदत्रयी स्वरूपा तीनों लोकों की माता भगवती रमा (लक्ष्मी) का स्तोत्र पाठ करते हैं वे भक्तगण इस पृथ्वी पर महागुणी और अत्यंत सौभाग्यशाली होते हैं एवं विद्वद्जन भी उनके मनोगत भाव को समझने के लिए विशेष इच्छुक रहते हैं।
।।इति श्री कनक धारा स्तोत्रम सम्पूर्णम।।