Gajendra Moksha Stotra

श्री शुक उवाच

एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम॥

ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥

यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं।
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम॥

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितंक्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम।
अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षतेस आत्ममूलोवतु मां परात्परः॥

कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशोलोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु।
तमस्तदाऽऽऽसीद गहनं गभीरंयस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः।।

न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतोदुरत्ययानुक्रमणः स मावतु॥

दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलमविमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वनेभूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः॥

न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वान नाम रूपे गुणदोष एव वा।
तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यःस्वमायया तान्युलाकमृच्छति॥

तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेऽनन्तशक्तये।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे॥

नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि॥

सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता।
नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे॥

नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च॥

क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे।
पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः॥

सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः॥

नमो नमस्ते खिल कारणायनिष्कारणायद्भुत कारणाय।
सर्वागमान्मायमहार्णवायनमोपवर्गाय परायणाय॥

गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपायतत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि॥

मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणायमुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते॥

आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय।
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभावितायज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय॥

यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामाभजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययंकरोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम॥

एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थवांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलंगायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः॥

तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम।
अतीन्द्रियं सूक्षममिवातिदूर-मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे॥

यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः॥

यथार्चिषोग्नेः सवितुर्गभस्तयोनिर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः।
तथा यतोयं गुणसंप्रवाहोबुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः॥

स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंगन स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासननिषेधशेषो जयतादशेषः॥

जिजीविषे नाहमिहामुया कि मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम॥

सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम॥

योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम॥

नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तयेकदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने॥

नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम॥

श्री शुकदेव उवाच

एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषंब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वाततत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत॥

तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासःस्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि:।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः॥

सोऽन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छान्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते॥

तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्यसग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार।
ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रंसम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम॥

  

योऽसौ ग्राहः स वै सद्यः परमाश्र्चर्य रुपधृक् । 

मुक्तो देवलशापेन हुहु-गंधर्व सत्तमः ।। 

सोऽनुकंपित ईशेन परिक्रम्य प्रणम्य तम् ।।। 

लोकस्य पश्यतो लोकं स्वमगान्मुक्त-किल्बिषः ॥ 

 

गजेन्द्रो भगवत्स्पर्शाद् विमुक्तोऽज्ञानबंधनात् । 

प्राप्तो भगवतो रुपं पीतवासाश्र्चतुर्भुजः ।। 

एवं विमोक्ष्य गजयुथपमब्जनाभः ।।। 

स्तेनापि पार्षदगति गमितेन युक्तः ॥ 

गंधर्वसिद्धविबुधैरुपगीयमान- 

कर्माभ्दुतं स्वभवनं गरुडासनोऽगात् ॥ 

॥ इति श्रीमद् भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे गजेंन्द्रमोक्षणे तृतीयोऽध्यायः ॥

 

Gajendra Moksha Stotram in hindi विष्णु स्तोत्र


गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र का हिंदी में अर्थ Meaning of Gajendra Moksha Stotra

 
जो जगत के मूल कारण हैं और सबके हृदय में पुरुष के रूप मैं विराजमान हैं एवं समस्त जगत के एकमात्र स्वामी हैं,
 
जिनके कारण इस संसार में चेतना का विस्तार होता है-उन भगवन को मैं नमस्कार करता हूँ, प्रेम से उनका ध्यान करता हूँ|
 
यह संसार उन्हीं में स्थित है, उन्हीं की सत्ता से प्रतीत हो रहा है, वे ही इसमें व्याप्त हो रहे हैं और स्वयं वे ही इस रूप में प्रकट हो रहे हैं.
 
यह सब होने पर भी वे संसार और इसके कारण -प्रकृति से सर्वथा परे हैं| उन स्वयंप्रकाश, स्वयंसिद्ध सत्तात्मक भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ|
 
यह विश्व प्रपंच उन्हीं की माया से उनमें अध्यस्त हैं. यह कभी प्रतीत होता है, तो कभी नहीं. परन्तु उनकी दृष्टि ज्यों-की-त्यों – एक सी रहती है. वे इसके साक्षी हैं और उन दोनों को ही देखते रहते है.
 
वे सबके मूल हैं और अपने मूल भी वही हैं कोई दूसरा उनका कारण नहीं हैं| वे ही समस्त कार्य और कारणों से अतीत प्रभु मेरी रक्षा करें|
 
प्रलय के समय लोक, लोकपाल और इन सबके कारण सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो जातें हैं. उस समय केवल अत्यंत घना और गहरा अन्धकार-ही-अन्धकार रहता हैं|
 
परन्तु अन्नंत परमात्मा उससे सर्वथा परे विराजमान रहतें हैं| वे ही प्रभु मेरी रक्षा करें
 
उनकी लीलाओं का रहस्य जानना बहुत ही कठिन है| वे नट की भाँति अनेकों वेष धारण करते हैं. उनके वास्तविक स्वरूप को न तो देवता जानते हैं और न ऋषि ही;
 
फिर दूसरा ऐसा कौन सा कौन प्राणी है जो वहाँ तक जा सके और उनका वर्णन कर सके? वो प्रभु मेरी रक्षा करें|
 
जिनके परम मंगलमयस्वरूप का दर्शन करने के लिए महात्मा गण संसार की समस्त आसक्तियों का परित्याग कर देतें है और वन में जाकर अखंड भाव से ब्रह्मचर्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं
 
तथा अपने आत्मा को सबके हृदय में विराजमान देखकर स्वाभाविक ही सबकी भलाई करते हैं-वे ही मुनियों के सर्वस्व भगवान मेरे सहायक हैं; वे ही मेरी गति हैं.
 
न उनके जन्म-कर्म हैं और न नाम-रूप; फिर उनके सम्बन्ध में गुण और दोषों की तो कल्पना ही कैसे की जा सकती हैं?
 
फिर भी विश्व की सृष्टि और संहार करने के लिए समय-समय पर वे उन्हें अपनी माया से स्वीकार करते हैं
 
उन्हीं अनंत शक्तिमान सर्वेश्वर्यमय परब्रह्म परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ| वो अरूप होने पर भी बहुरूप हैं.
 
उनके कर्म अत्यंत आश्चर्यमय हैं| मैं उनके चरणों में नमस्कार करता हूँ|
 
स्वयं प्रकाश, सबके साक्षी परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ|
 
जो मन, वाणी और चित्त से अत्यंत दूर हैं-उन परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ|
 
विवेकी पुरुष कर्म-सन्यास अथवा कर्म-समर्पण के द्वारा अपना अन्तःकरण शुद्ध करके जिन्हें प्राप्त करते हैं तथा जो स्वयं तो नित्यमुक्त, परमानन्द एवं ज्ञानस्वरूप हैं ही,
 
दूसरों को कैवल्य-मुक्ति देने की सामर्थ्य भी केवल उन्हीं में हैं-उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ|
 
जो सत्व, रज, तम-इन तीन गुणों का धर्म स्वीकार करके क्रमशः शांत, घोर और मूढ़ अवस्था भी धारण करते हैं, उन भेद रहित समभाव से स्थित एवं ज्ञानघन प्रभु को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ|
 
आप सबके स्वामी, समस्त क्षेत्रों के एकमात्र ज्ञाता एवं सर्वसाक्षी हैं, आपको मैं नमस्कार करता हूँ. आप स्वयं ही अपने कारण हैं| पुरुष और मूल प्रकृति के रूप में भी आप ही हैं| आपको मेरा बार-बार नमस्कार|
 
आप समस्त इन्द्रिय और उनके विषयों के द्रष्टा हैं| समस्त प्रतीतियों के आधार हैं| अहंकार आदि छायारूप असत वस्तुओं के द्वारा आपका ही अस्तित्व प्रकट होता है|
 
समस्त वस्तुओं को सत्ता के रूप मैं भी केवल आप ही भास् रहे हैं| मैं आपको नमस्कार करता हूँ|
 
आप सबके मूल कारण है, आपका कोई कारण नहीं है, तथा कारण होने पर भी आप में विकार या परिणाम नहीं होता, इसलिए आप अनोखे कारण हैं| आपको मेरा बार-बार नमस्कार!
 
जैसे समस्त नदी-झरने आदि का परम आश्रय समुद्र है, वैसे ही आप समस्त वेद और शास्त्रों के परम तात्पर्य है| 
 
आप मोक्षस्वरूप हैं और समस्त संत आपकी ही शरण ग्रहण करते हैं; अतः आपको मैं नमस्कार करता हूँ|
 
जैसे यज्ञ के काष्ठ अरणि में अग्नि गुप्त रहती हैं, वैसे ही आपने अपने ज्ञान को गुणों को माया ढक रखा हैं
 
गुणों में क्षोभ होने पर उनके द्वारा विविध प्रकार की सृष्टि रचना का आप संकल्प करते हैं|
 
जो लोग कर्म-संन्यास अथवा कर्म-समर्पण के द्वारा आत्म तत्त्व की भावना करके वेद-शास्त्रों के ऊपर उठ जाते हैं, उनके आत्मा के रूप में आप स्वयं ही प्रकाशित हो जाते है| 
 
आपको मैं नमस्कार करता हूँ|
 
जैसे कोई दयालु पुरुष फंदे में पड़े हुए पशु का बंधन काट दे, वैसे ही आप मेरे-जैसे शरणागतों की फाँसी काट देते हैं| 
 
आप नित्यमुक्त हैं, परम करुणामय हैं और भक्तों का कल्याण करने में आप कभी आलस्य नहीं करते|
 
आपके चरणों में मेरे नमस्कार है| समस्त प्राणियों के हृदय में अपने अंश के द्वारा अंतरात्मा के रूप  में आप उपलब्ध होते रहते हैं| आप सर्वेश्वर्यपूर्ण एवं अनंत हैं| आपको मैं नमस्कार करता हूँ|
 
जैसे कोई दयालु पुरुष फंदे में पड़े हुए पशु का बंधन काट दे, वैसे ही आप मेरे-जैसे शरणागतों की फाँसी काट देते हैं. आप नित्यमुक्त हैं, परम करुणामय हैं और भक्तों का कल्याण करने में आप कभी आलस्य नहीं करते|
 
आपके चरणों में मेरे नमस्कार है| समस्त प्राणियों के हृदय में अपने अंश के द्वारा अंतरात्मा के रूप  में आप उपलब्ध होते रहते हैं| आप सर्वेश्वर्यपूर्ण एवं अनंत हैं| आपको मैं नमस्कार करता हूँ|
 
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की कामना से मनुष्य उन्हीं का भजन करके अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेते हैं| इतना ही नहीं, वे उनको सभी प्रकार का सुख देते हैं
 
और अपने ही जैसा अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं| वे ही परम दयालु प्रभु मेरा उद्धार करें|
 
जिनके अनन्यप्रेमी भक्तजन उन्हीं की शरण में रहते हुए उनसे किसी भी वस्तु की-यहाँ तक की मोक्ष की भी अभिलाषा नहीं करते,
 
केवल उनकी परम दिव्य मंगलमयी लीलाओं का गान करते हुए आनंद के समुद्र में निमग्न रहते हैं,
 
जो अविनाशी, सर्वशक्तिमान, अव्यक्त, इन्द्रियातीत और अत्यंत सूक्ष्म हैं;जो अत्यंत निकट रहने पर भी बहुत दूर जान पड़ते हैं;
 
जो आध्यात्मिक योग अर्थात ज्ञान योग या भक्तियोग के द्वारा प्राप्त होते हैं-उन्हीं आदिपुरुष, अनंत एवं परिपूर्ण परब्रह्म परमात्मा की मैं स्तुति करता हूँ|
 
जिनकी अत्यंत छोटी कला से अनेकों नाम-रूप के भेद-भाव से युक्त ब्रह्मा आदि देवता, वेद और चराचर लोकों की सृष्टि हुई है |
 
जैसे धधकती हुई आग से लपटें और प्रकाशमान सूर्य से उनकी किरणें बार-बार निकलती और लीन होती रहती हैं|
 
वैसे ही जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शरीर-जो गुणों के प्रवाहरूप हैं-बार-बार प्रकट होते तथा लीन हो जाते हैं,
 
वे भगवान न देवता हैं और न असुर. वे मनुष्य और पशु-पक्षी भी नहीं है| न वे स्त्री हैं, न पुरुष और न नपुंसक| वे कोई साधारण या असाधारण प्राणी भी नहीं हैं| न वे गुण हैं और न कर्म, न कार्य हैं और न तो कारण ही|
 
सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बचा रहता है, वही उनका स्वरूप है तथा वे ही सब कुछ हैं| वे ही परमात्मा मेरे उद्धार के लिए प्रकट हों|
 
मैं जीना नहीं चाहता. यह हाथी की योनि बाहर और भीतर-सब ओर से अज्ञानरूप आवरण के द्वारा ढकी हुई है, इसको रखकर करना ही क्या है?
 
मैं तो आत्मप्रकाश को ढकने वाले उस अज्ञानरूप आवरण से छूटना चाहता हूँ, जो काल क्रम से अपने-आप नहीं छूट सकता, जो केवल भगवत्कृपा अथवा तत्त्वज्ञान के द्वारा ही नष्ट होता है|
 
इसलिए मैं उन परब्रह्म परमात्मा की शरण में हूँ| जो विश्वरहित होने पर भी विश्व के रचयिता और विश्वरूप हैं-
 
साथ ही जो विश्व की अंतरात्मा के रूप में विश्वरूप सामग्री से क्रीड़ा भी करते हैं, उन अजन्मा परमपदस्वरूप ब्रह्म को मैं नमस्कार करता हूँ|
 
योगी लोग योग के द्वारा कर्म, कर्मवासना और कर्मफल को भस्म करके अपने योगशुद्ध हृदय में जिन योगेश्वर भगवान का साक्षात्कार करते हैं-उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ|
 
प्रभो! आपकी तीन शक्तियों-सत्त्व, रज और तम के रागादि वेग असह्य हैं. समस्त इन्द्रियों और मन के विषयों के रूप में भी आप ही प्रतीत हो रहें हैं| इसलिए जिनकी इन्द्रियां वश में नहीं हैं,
 
वे तो आपकी प्राप्ति का मार्ग भी नहीं पा सकते. आपकी शक्ति अनंत हैं |
 
आप शरणागतवत्सल हैं| आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ|
 
आपकी माया अहंबुद्धि से आत्मा का स्वरूप ढक गया है, इसी से यह जीव अपने स्वरूप नहीं जान पाता| आपकी महिमा अपार है| उन सर्वशक्तिमान एवं माधुर्यनिधि भगवान् की मैं शरण में हूँ| 
 

गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र के लाभ Gajendra Moksha Stotra Benefits

गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र भागवत महापुराण के 8 वें स्कंद से एक किंवदंती है जहां भगवान विष्णु गजेंद्र की रक्षा के लिए धरती पर आए थे।

गजेंद्र एक हाथी है जो मगरमच्छ मकर के चंगुल से कीचड़ वाली झील में फंसा था। हाथी गजेंद्र भगवान विष्णु से प्राणो की रक्षा के लिए प्रार्थना करता है।

भगवान विष्णु की सहायता से, गजेंद्र ने मोक्ष (जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति) प्राप्त करता है।

गजेंद्र मोक्ष, शक्तिशाली दिव्य मंत्र जीवन में समस्याओं पर काबू पाने में मदद करता है। इसलिए आपको जीवन की कठिनाइयों का सामना करने में मदद करने वाले सभी आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए इस मंत्र का जाप करना चाहिए।

  • इस प्रार्थना में कठिन कार्यों को पूरा करने और स्थिति से बाहर निकलने के लिए भगवान विष्णु की कृपा लाने की शक्ति है।
  • हिंदू धर्म में यह माना जाता है कि गजेंद्र मोक्ष का जाप करने से जीवन में सकारात्मकता आएगी, आपको भौतिक दुखों से मुक्त होने में मदद मिलेगी और जीवन की चिंताओं को दूर करने के लिए आध्यात्मिक शक्ति मिलेगी।
  • गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र का पाठ आपको भगवान विष्णु के करीब और पूरी तरह से समर्पित करने में मदद करेगा।
  • गजेंद्र मोक्ष पाठ आपके विश्वास को मजबूत करता है कि भगवान विष्णु आपकी ओर देख रहे हैं और जीवन में कठिन परिस्थितियों से आपकी रक्षा करने के लिए हैं।
  • इस प्रार्थना का जप करने से आपको सभी पापों को दूर करने और धार्मिक रूप से समर्पित जीवन जीने में मदद मिलती है।
  • यह आपको पुनर्जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त होने में मदद करेगा जैसे इसने गजेंद्र को हाथी को मगरमच्छ के चंगुल से मुक्त करने में मदद की।

यह विशिष्ट मंत्र आपको जीवन में समृद्ध करने में मदद कर सकता है और आपको इस जीवन में परेशान करने वाली समस्याओं से छुटकारा पाने में मदद कर सकता है।


पढ़िए भगवान विष्णु जी की आरती ,चालीसा और स्तुतियां


Gajendra Moksha Stotra PDF

gajendra moksha

FAQs

  1. Q.1 गजेंद्र मोक्ष का पाठ कब करें?

    कोई भी समय उपयुक्त है, हालांकि इस विशिष्ट स्तोत्र के लिए सुबह का समय सुझाया गया है।

  2. Q.2 हमें गजेंद्र मोक्ष क्यों पढ़ना चाहिए?

    एक लोकप्रिय किंवदंती के अनुसार, जब गजेंद्र ने इस स्तोत्र की प्रार्थना की, तो महाविष्णु ने गजेंद्र (हाथियों के राजा) को मगरमच्छ के चंगुल से बचाया। ऐसा माना जाता है कि इस शक्तिशाली प्रार्थना का जप करने से व्यक्ति को जीवन में किसी भी कठिनाई का सामना करने और अवांछित परिस्थितियों से बाहर निकलने की शक्ति मिलती है।

  3. Q.3 गजेंद्र मोक्ष का पाठ करने से क्या लाभ है?

    गजेंद्र मोक्षम, दिव्य प्रार्थना कठिनाइयों पर काबू पाने में मदद करती है जब आप मदद के लिए कोई जगह नहीं दिखती हैं तो आप इस स्तोत्र का पाठ करें। इस प्रार्थना में वास्तव में भगवान विष्णु, गुरु और भगवान चंद्र की कृपा आप पर होगी और आपके कठिन कार्य को पूरा करने की शक्ति है इस स्तोत्र में

  4. Q.4 पिछले जन्म में गजेंद्र कौन थे?

    गजेंद्र, अपने पिछले जीवन में, इंद्रद्युम्न, एक महान राजा थे जो विष्णु भगवान के भक्त थे। एक दिन, अगस्त्य, एक महान ऋषि (ऋषि) राजा से मिलने आए, लेकिन इंद्रद्युम्न बैठे रहे, उन्होंने ऋषि को उचित सम्मान नहीं दिया और इसी श्राप के कारन उनका अगला जनम हाथी का हुआ


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