नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर
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नागेश्वर ज्योतिर्लिंग गुजरात के जिले जामनगर में द्वारका धाम से 17 किलोमीटर के दूरी पर स्थित है।
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर में स्थित ज्योति लिंग भगवान शिव के 12 ज्योति लिंग में से है तथा 12 ज्योति लिंगों में से नागेश्वर को दसवां ज्योति लिंग माना जाता है।
हिन्दू धर्म के अनुसार नागेश्वर अर्थात नागों का ईश्वर होता है। शास्त्रों में भगवान शिव के इस ज्योति लिंग के दर्शनों की बड़ी महिमा बताई गई है।
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के कार्य के बीच में ही श्री गुलशन कुमार मृत्यु हो जाने के कारण उनके परिवार ने इस मंदिर का कार्य पूर्ण करवाया था।
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर के पुनः निर्माण के कार्य की लागत गुलशन कुमार चेरिटेबल ट्रस्ट ने दिया था।
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर के विशेषता यहां स्थापित भगवान शंकर की प्रतिमा है जो लगभग 125 फीट ऊँची तथा 25 फीट चौड़ी है।
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर के अन्दर एक गर्भगृह है जो सभामंड़प से निचले स्तर पर स्थित है।
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग गर्भगृह में ही भगवान शंकर का लिंग स्थापित है। अगर किसी व्यक्ति को अभिषेक करवाना होता है तो केवल पुरुष को धोती पहन कर प्रवेश कर सकता है।
मात्र दर्शन हेतु को भी पुरुष व महिला भारतीय पोशाक में गर्भगृह में जा सकता है।
ज्योतिर्लिंग पर ही एक चांदी के नाग की आकृति बनी हुई है। नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के पीछे माता पार्वती की मूर्ति स्थापित है।
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा
वह मन, वचन और कर्म से पूर्णतः भगवान शिव में लिन रहता था। उसकी इस भक्ती से दारुक नाम का एक राक्षस बहुत कोध्री रहता था।
वह निरन्तर इस बात का प्रयत्न किया करता था कि उस सुप्रिय की पूजा-अर्चना में विघ्न पहुँचे। एक बार सुप्रिय नौका पर सवार होकर कहीं जा रहा था।
उस दुष्ट राक्षस दारुक ने यह उपयुक्त अवसर देखकर नौका पर आक्रमण कर दिया। उसने नौका में सवार सभी यात्रियों को पकड़कर अपनी राजधानी में ले जाकर कैद कर लिया।
सुप्रिय कारागार में भी अपने नित्यनियम के अनुसार भगवान शिव की पूजा-आराधना करने लगा।
इससे दारुक राक्षस क्रोध से एकदम पागल हो उठा। उसने तत्काल अपने अनुचरों को सुप्रिय तथा अन्य सभी बंदियों को मार डालने का आदेश दे दिया।
सुप्रिय उसके इस आदेश से जरा भी विचलित और भयभीत नहीं हुआ।
उसकी प्रार्थना सुनकर भगवान शंकरजी तत्क्षण उस कारागार में एक ऊँचे स्थान में एक चमकते हुए सिंहासन पर स्थित होकर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हो गए।
इस अस्त्र से राक्षस दारुक तथा उसके सहायक का वध करके सुप्रिय शिवधाम को चला गया। भगवान् शिव के आदेशानुसार ही इस ज्योतिर्लिंग का नाम नागेश्वर पड़ा।
कुछ लोग मानते हैं की यह ज्योतिर्लिग महाराष्ट्र के हिंगोली जिले में स्थित औंढा नागनाथ नामक जगह पर है तथा अन्य लोगों का मानना है की यह ज्योतिर्लिंग उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा के समीप जागेश्वर धाम नामक जगह पर स्थित है|
इन सारे मतभेदों के बावजूद प्रति वर्ष लाखों की संख्या में भक्त गुजरात में द्वारका के समीप स्थित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर में दर्शन, पूजन और अभिषेक के लिए आते हैं।
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की कहानी
जब वह नौका (नाव) पर सवार होकर समुद्र के जलमार्ग से कहीं जा रहा था, उस समय ‘दारूक’ नामक एक भयंकर बलशाली राक्षस ने उस पर आक्रमण कर दिया।
राक्षस दारूक ने सभी लोगों सहित सुप्रिय का अपहरण कर लिया और अपनी पुरी में ले जाकर उसे बन्दी बना लिया।
चूँकि सुप्रिय शिव जी का अनन्य भक्त था, इसलिए वह हमेशा शिव जी की आराधना में तन्मय रहता था।
कारागार में भी उसकी आराधना बन्द नहीं हुई और उसने अपने अन्य साथियों को भी शंकर जी की आराधना के प्रति जागरूक कर दिया। वे सभी शिवभक्त बन गये। कारागार में शिवभक्ति का ही बोल-बाला हो गया।
उस समय अपने भक्त की पुकार पर भगवान शिव ने उसे कारागार में ही दर्शन दिया।
कारागार में एक ऊँचे स्थान पर चमकीले सिंहासन पर स्थित भगवान शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में उसे दिखाई दिये।
शंकरजी ने उस समय सुप्रिय वैश्य का अपना एक पाशुपतास्त्र भी दिया और उसके बाद वे अन्तर्धान (लुप्त) हो गये।
पाशुपतास्त्र (अस्त्र) प्राप्त करने के बाद सुप्रिय ने उसक बल से समचे राक्षसों का संहार कर डाला और अन्त में वह स्वयं शिवलोक को प्राप्त हुआ।
भगवान शिव के निर्देशानुसार ही उस शिवलिंग का नाम ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग’ पड़ा।
‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग’ के दर्शन करने के बाद जो मनुष्य उसकी उत्पत्ति और माहात्म्य सम्बन्धी कथा को सुनता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है तथा सम्पूर्ण भौतिक और आध्यात्मिक सुखों को प्राप्त करता है-
मतान्तर से इन लिंगों को भी कुछ लोग नागेश्वर ज्योतिर्लिंग कहते हैं।
मनमाड से द्रोणाचलम तक जाने वाली रेलवे पर परभणी नामक प्रसिद्ध स्टेशन है।
परभनी से कुछ ही दूरी पर पूर्णा जंक्शन है, जहाँ से रेलमार्ग पर ‘चारेंडी’ नामक स्टेशन है, जहाँ से लगभग 18 किलोमीटर की दूरी ‘औढ़ाग्राम’ है।
स्टेशन से मोटरमार्ग द्वारा ‘औढ़ाग्राम’ पहुँचा जाता है। इसी प्रकार उत्तराखंड प्रदेश के अल्मोड़ा जनपद में एक ‘योगेश या ‘जागेश्वर शिवलिंग’ अवस्थित है, जिसे नागेश्वर ज्योतिर्लिंग बताया जाता है।
यह स्थान अल्मोड़ा से लगभग 25 किलोमीटर उत्तर पूर्व की ओर है, जिसकी दूरी नैनीताल से लगभग 100 किलोमीटर है।
यद्यपि शिव पुराण के अनुसार समुद्र के किनारे द्वारका पुरी के पास स्थित शिवलिंग ही ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रमाणित होता है।

नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की जानकारी
ऐसी स्थिति में ‘योगेश’ किस प्रकार नागेश बन गये? इस सन्दर्भ में ध्यान देने योग्य बात यह है कि कश्मीर प्रान्त के पहाड़ियों तथा विभिन्न मैदानी क्षेत्रों से अनेक में पौण्ड्रक, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक पल्लव, राद, किरात, दरद, नाग और खस आदि प्रमुख थीं।
महाभारत के अनुसार ये सभी जातियाँ बहुत पराक्रमी तथा सभ्यता-सम्पन्न थीं।
जब पाण्डवों को इन लोगों से संघर्ष करना पड़ा तब उन्हें भी ज्ञान हुआ कि ये सभी क्षत्रिय धर्म और उसके गुणों से सम्पन्न हैं।
श्री ओकले साहब ने उपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘पवित्र हिमालय’ में लिखा है कि कश्मीर और हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में नाग लोगों की एक जाति रहती है।
ओकले के अनुसार सर्प की पूजा करने के कारण ही उन्हें ‘नाग’ कहा जाता है।
यह प्रथा आज भी गढ़वाल तथा कुमाऊँ में प्रचलित है।
उनके आधार पर यह बात तर्क संगत लगती है कि इन नाग-मन्दिरों के बीच ‘नागेश’ नामक कोई बड़ा मन्दिर प्राचीनकाल से कुमाऊँ में विद्यमान है।
पौराणिक धर्म और भूत-प्रेतों की पूजा की भी शिवोपासना में गणना की गई है।
इन देवों की बलि पूजा होती थी या नहीं, यह कहना कठिन है, किन्तु इतिहास के पृष्ठों से इतना तो निश्चित है कि काठमाण्डू, नेपाल के ‘पाशुपतिनाथ, और कुमाऊँ में ‘यागेश्वर’ के ‘पाशुपतेश्वर’ दोनों वैदिक काल से पूजनीय देवस्थान हैं।
पवित्र हिमालय की सम्पूर्ण चोटियों को तपस्वी भगवान शिवमूर्तियों के रूप में स्वीकार किया जाता है, किन्तु कैलास पर्वत को तो आदि काल से नैसर्गिक शिव मन्दिर बताया गया है।
जागेश्वर-मन्दिर के अवलोकन से पता चलता है कि इसका निर्माण कम से कम 2500 वर्षों पूर्व का है। इसके समीप मृत्युंजय और डिण्डेश्वर-मन्दिर भी उतने ही पुराने हैं।
जागेश्वर-मन्दिर शिव-शक्ति की प्रतिमाएँ और दरवाजों के द्वारपालों की मूर्तियाँ भी उक्त प्रकार की अत्यन्त प्राचीन हैं। जागेश्वर-मन्दिर में राजा दीपचन्द की चाँदी की मूर्ति भी स्थापित है।
स्कन्दपुराण के अनुसार नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा
कुमाऊँ और कोसल राज्य
मल्ल राजाओं ने भी पाशुपतेश्वर या जागेश्वर के दर्शन किये थे तथा जागेश्वर को कुछ गाँव उपहार में समर्पित किये थे।
चन्द राजाओं की जागेश्वर के प्रति अटूट श्रृद्धा थी। इनका राज्य कुमाऊँ की पहाड़ियों तथा तराईभाँवर के बीच था। देवीचन्द, कल्याणचन्द, रतनचन्द, रुद्रचन्द्र आदि राजाओं ने जागेश्वर-मन्दिर को गाँव तथा बहुत-सा धन दान में दिये थे।
उसके सैनिकों ने भारी तबाही मचाई और अल्मोड़ा तक के मन्दिरों को भ्रष्ट कर उनकी मूर्तियों को तोड़ डाला।
उन दुष्टों ने जागेश्वर-मन्दिर पर भी धावा बोला था, किन्तु ईश्वर इच्छा से वे असफल रहे।
सघन देवदार के जंगल से लाखों बर्र निकलकर उन सैनिकों पर टूट पड़े और वे सभी भाग खड़े हुए। उनमें से कुछ कुमाऊँ निवासियों द्वारा मार दिये गये, तो कुछ सर्दी से मर गये।
बौद्धों के समय में :-
अपने दिग्विजय-यात्रा के दौरान आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने पुन: मूर्तियों को स्थापित किया और जागेश्वर-मन्दिर की पूजा का दायित्त्व दक्षिण भारतीय कुमारस्वामी को सौंप दिया।
इसी के कारण इसे ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग’ मानने के पर्याप्त आधार मिल जाता है।
शिवपुराण की कथा
वह प्रसिद्ध धर्मनाशक राक्षस था। पश्चिम समुद्र के किनारे सभी प्रकार की सम्पदाओं से भरपूर सोलह योजन विस्तार पर उसका एक वन था, जिसमें वह निवास करता था।
दारूका जहाँ भी जाती थी, वृक्षों तथा विविध उपकरणों से सुसज्जित वह वनभूमि अपने विलास के लिए साथ-साथ ले जाती थी।
महादेवी पार्वती ने उस वन की देखभाल का दायित्त्व दारूका को ही सौंपा था, जो उनके वरदान के प्रभाव से उसके ही पास रहता था।
उससे पीड़ित आम जनता ने महर्षि और्व के पास जाकर अपना कष्ट सुनाया।
शरणागतों की रक्षा का धर्म पालन करते हुए महर्षि और्व ने राक्षसों को शाप दे दिया।
महर्षि और्व द्वारा दिये गये शाप की सूचना जब देवताओं को मालूम हुई, तब उन्होंने दुराचारी राक्षसों पर चढ़ाई कर दी। राक्षसों पर भारी संकट आ पड़ा।
यदि वे युद्ध में देवताओं को मरते हैं, तो शाप के कारण स्वयं मर जाएँगे और यदि उन्हें नहीं मारते हैं, तो पराजित होकर स्वयं भूखों मर जाएँगे।
उस समय दारूका ने राक्षसों को सहारा दिया और भवानी के वरदान का प्रयोग करते हुए वह सम्पूर्ण वन को लेकर समुद्र में जा बसी। इस प्रकार राक्षसों ने धरती को छोड़ दिया और निर्भयतापूर्वक समुद्र में निवास करते हुए वहाँ भी प्राणियों को सताने लगे।
सभी लोगों को बेड़ियों से बाँधकर उन्हें कारागार में बन्द कर दिया गया। राक्षस उन यात्रियों को बार-बार धमकाने लगे। एक ‘सुप्रिय’ नामक वैश्य उस यात्री दल का अगुवा (नेता) था, जो बड़ा ही सदाचारी था।
वह ललाट पर भस्म, गले में रुद्राक्ष की माला डालकर भगवान शिव की भक्ति करता था। सुप्रिय बिना शिव जी की पूजा किये कभी भी भोजन नहीं करता था।
उसने अपने बहुत से साथियों को भी शिव जी का भजन-पूजन सिखला दिया था। उसके सभी साथी ‘नम: शिवाय’ का जप करते थे तथा शिव जी का ध्यान भी करते थे।
सुप्रिय परम भक्त था, इसलिए उसे शिव जी का दर्शन भी प्राप्त होता था। इस विषय की सूचना जब राक्षस दारूका को मिली, तो वह करागार में आकर सुप्रिय सहित सभी को धमकाने लगा और मारने के लिए दौड़ पड़ा।
मारने के लिए आये राक्षसों को देखकर भयभीत सुप्रिय ने कातरस्वर से भगवान शिव को पुकारा, उनका चिन्तन किया और वह उनके नाम-मन्त्र का जप करने लगा।
उसने कहा- देवेश्वर शिव! हमारी रक्षा करें, हमें इन दुष्ट राक्षसों से बचाइए। देव! आप ही हमारे सर्वस्व हैं, आप ही मेरे जीवन और प्राण हैं।
इस प्रकार सुप्रिय वैश्य की प्रार्थना को सुनकर भगवान शिव एक ‘विवर’ अर्थात् बिल से प्रकट हो गये। उनके साथ ही चार दरवाजों का एक सुन्दर मन्दिर प्रकट हुआ।
वैश्य सुप्रिय ने शिव परिवार सहित उस ज्योतिर्लिंग का दर्शन और पूजन किया–
लीला करने के लिए स्वयं शरीर धारण करने वाले भगवान शिव ने अपने भक्त सुप्रिय आदि की रक्षा करने के बाद उस वन को भी यह वर दिया कि ‘आज से इस वन में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र, इन चारों वर्णों के धर्मों का पालन किया जाएगा।
इस वन में शिव धर्म के प्रचारक श्रेष्ठ ऋषि-मुनि निवास करेंगे और यहाँ तामसिक दुष्ट राक्षसों के लिए कोई स्थान न होगा।’
उसकी प्रार्थना से प्रसन्न माता पार्वती ने पूछा– ‘बताओ, मैं तेरा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?’! दारूका ने कहा– ‘माँ!
आप मेरे कुल (वंश) की रक्षा करें।’ पार्वती ने उसके कुल की रक्षा का आश्वासन देते हुए भगवान शिव से कहा– ‘नाथ!
आपकी कही हुई बात इस युग के अन्त में सत्य होगी, तब तक यह तामसिक सृष्टि भी चलती रहे, ऐसा मेरा विचार है।’
माता पार्वती शिव से आग्रह करती हुईं बोलीं कि ‘मैं भी आपके आश्रय में रहने वाली हूँ, आपकी ही हूँ, इसलिए मेरे द्वारा दिये गये वचन को भी आप सत्य (प्रमाणित) करें।
यह राक्षसी दारूका राक्षसियों में बलिष्ठ, मेरी ही शक्ति तथा देवी है। इसलिए यह राक्षसों के राज्य का शासन करेगी।
ये राक्षसों की पत्नियाँ अपने राक्षसपुत्रों को पैदा करेगी, जो मिल-जुलकर इस वन में निवास करेंगे-ऐसा मेरा विचार है।’
मैं भक्तों का पालन तथा उनकी सुरक्षा के लिए प्रसन्नतापूर्वक इस वन में निवास करूँगा।
जो मनुष्य वर्णाश्रम-धर्म का पालन करते हुए श्रद्धा-भक्तिपूर्वक मेरा दर्शन करेगा, वह चक्रवर्ती राजा बनेगा। कलि युग के अन्त में तथा सत युग के प्रारम्भ में महासेन का पुत्र वीरसेन राजाओं का महाराज होगा। वह मेरा परम भक्त तथा बड़ा पराक्रमी होगा।
जब वह इस वन में आकर मेरा दर्शन करेगा। उसके बाद वह चक्रवर्ती सम्राट हो जाएगा।’ तत्पश्चात् बड़ी-बड़ी लीलाएँ करने वाले शिव-दम्पत्ति ने आपस में हास्य-विलास की बातें की और वहीं पर स्थित हो गये।
इस प्रकार शिवभक्तों के प्रिय ज्योतिर्लिंग स्वरूप भगवान शिव ‘नागेश्वर’ कहलाये और शिवा (पार्वती) देवी भी ‘नागेश्वरी’ के नाम से विख्यात हुईं।
इस प्रकार शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए हैं, जो तीनों लोगों की कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं।
जो कोई इस नागेश्वर महादेव के आविर्भाव की कथा को श्रद्धा-प्रेमपूर्वक सुनता है, उसके समस्त पातक नष्ट हो जाते हैं और वह अपने सम्पूर्ण अभीष्ट फलों को प्राप्त कर लेता है–
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंत्र
ॐ नागेश्वराय ज्योतिर्लिंगाये नमः