क्या है शिवलिंग का वास्तविक अर्थ
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हिन्दू धर्म एक ऐसा धर्म है जिससे जुड़े चिह्नों, कथाओं, स्थानों आदि को अपने अनुसार वर्णित कर लिया जाता है।
आप खुद यह बात जानते होंगे कि जितने प्रक्षिप्तांश हिन्दू धर्म ग्रंथों के साथ जुड़ते हैं उतने किसी अन्य धर्म के साथ संभव ही नहीं है।
बहुत से लोग इस बात का विरोध कर सकते हैं लेकिन सत्य यही है कि हिन्दू धर्म सहनशील धर्म है, जो प्रक्षिप्तांशों का विरोध भी नहीं करता और सहर्ष इन्हें स्वीकार भी लेता है। पूरे भारत में बारह ज्योर्तिलिंग हैं जिसके विषय में मान्यता है कि इनकी उत्पत्ति स्वयं हुई।
इनके अलावा देश के विभिन्न भागों में लोगों ने मंदिर बनाकर शिवलिंग को स्थापित किया है और उनकी पूजा करते हैं
भारतीय सभ्यता के प्राचीन अभिलेखों एवं स्रोतों से भी ज्ञात होता है कि आदि काल से ही मनुष्य शिव के लिंग की पूजा करते आ रहे हैं।
लेकिन क्या आपको पता है कि सभी देवों में महादेव के लिंग की ही पूजा क्यों होती है। इस संदर्भ में अलग-अलग मान्यताएं और कथाएं हैं।
सर्जनहार के रूप में उत्पादक शक्ति के चिन्ह के रूप में लिंग की पूजा होती है।
अकेले लिंग की पूजा से सभी की पूजा हो जाती है।
अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियों की पूजा की जाती है वही शिव जी की पूजा सिर्फ लिंग के रूप में की जाती है।
वाल्मिकी द्वारा कृत रामायण मौलिक ग्रंथ है इसके बाद विभिन्न देशों, राज्यों और भाषाओं के लोगों ने अपने-अपने अनुसार रामायण लिखी, जिसमें अपने-अपने अनुसार फेरबदल भी किए।
लेकिन फिर भी इन्हें शोध का विषय बनाकर स्वीकार कर लिया गया।
शिव
शिवलिंग, यह भी एक ऐसा ही प्रतीक या फिर विषय है जो हमेशा से ही विवादास्पद रहा है।
शिवलिंग को शिव का ही रूप मानकर पूजा जाता है। लेकिन विवाद का विषय यह है कि इसे शिव का “लिंग” मानकर पूजा जाता है।
शिवलिंग में योनि को मां शक्ति का प्रतीक माना जाता है।
शिव लिंग यह दर्शाता है कि पूरा ब्रह्माण्ड पुरुष और महिला की ऊर्जा से बना है।
जबकि यह मात्र विषय की समझ ना होने जैसे हालातों को ही दर्शाता है।
अन्य धर्मों के लोग कहते हैं कि हिन्दू भगवान शिव के लिंग की पूजा करते हैं और यह संस्कृत की समझ ना होने का परिचायक भर है।
संस्कृत में प्रतीक को “लिंग” कहा जाता है, जैसे महिलाओं के लिए “स्त्रीलिंग” का प्रयोग किया जाता है, पुरुषों के लिए “पुलिंग” और नपुंसक के लिए “नपुंसक लिंग” का प्रयोग किया जाता है।
ठीक उसी तरह शिव के लिए “शिवलिंग” का प्रयोग किया गया है, ऐसा इसलिए क्योंकि कि शिव किसी स्त्री या पुरुष का प्रतीक ना होकर, संपूर्ण ब्रह्मांड, आकाश, शून्य, निराकार का प्रतीक हैं।
उन्हें किसी एक श्रेणी में बांधकर नहीं रखा जा सकता, क्योंकि वे स्वयं एक श्रेणी हैं, एक प्रतीक हैं।
स्कंदपुराण के अनुसार आकाश स्वयं एक लिंग है और शिवलिंग समस्त ब्रह्मांड की धुरी है।
शिवलिंग अनंत है, इसकी ना तो शुरुआत है और ना ही अंत।
लेकिन विषय की समझ ना होने के कारण लोगों ने भ्रामक तथ्य, जिसके अनुसार शिवलिंग, शिव का जननांग है, पर विश्वास कर लिया।
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि प्राचीन धर्मिक ग्रंथों को नष्ट कर दिया गया और उसमें लिखी भाषा का सहूलियत के अनुसार रूपांतरण कर लिया गया।
लिंग के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। यहां लिंग को प्रतीक ना मानकर जननांग मान लिया गया।
शिवलिंग के विषय में लिंग का अर्थ चिह्न, निशानी, गुण आदि है।
जिसका आधार धरती है, शिवलिंग शून्य है, सभी इसी से पैदा होते हैं और इसी में मिल जाएंगे, इसीलिए इसे लिंग की संज्ञा भी दी गई है।
ब्रह्मांड दो चीजों से निर्मित है, ऊर्जा और पदार्थ। उसी तरह मनुष्य शरीर पदार्थ से निर्मित है, जो ऊर्जा से चलता है।
इसी कड़ी में शिव को पदार्थ और शक्ति को ऊर्जा माना गया है, इसके प्रतीक को शिवलिंग कहा जाता है।
शिव पुराण में शिवलिंग की पूजा के विषय में जो तथ्य मिलता है वह तथ्य इस कथा से अलग है।
शिव पुराण में शिव को संसार की उत्पत्ति का कारण और परब्रह्म कहा गया है।
इस पुराण के अनुसार भगवान शिव ही पूर्ण पुरूष और निराकार ब्रह्म हैं।
इसी के प्रतीकात्मक रूप में शिव के लिंग की पूजा की जाती है।
भगवान शिव ने ब्रह्मा और विष्णु के बीच श्रेष्ठता को लेकर हुए विवाद को सुलझाने के लिए एक दिव्य लिंग प्रकट किया था।
इस लिंग का आदि और अंत ढूंढते हुए ब्रह्मा और विष्णु को शिव के परब्रह्म स्वरूप का ज्ञान हुआ।
इसी समय से शिव के परब्रह्म मानते हुए उनके प्रतीक रूप में लिंग की पूजा आरंभ हुई।
हड़प्पा और मोहनजोदाड़ो की खुदाई से पत्थर के बने लिंग और योनी मिले हैं।
एक मूर्ति ऐसी मिली है जिसके गर्भ से पौधा निकलते हुए दिखाया गया।
यह प्रमाण है कि आरंभिक सभ्यता के लोग प्रकृति के पूजक थे। वह मानते थे कि संसार की उत्पत्ति लिंग और योनी से हुई है।
इसी से लिंग पूजा की परंपरा चल पड़ी।
सभ्यता के आरंभ में लोगों का जीवन पशुओं और प्रकृति पर निर्भर था इसलिए वह पशुओं के संरक्षक देवता के रूप में पशुपति की पूजा करते थे।
सैंधव सभ्यता से प्राप्त एक सील पर तीन मुंह वाले एक पुरूष को दिखाया गया है जिसके आस-पास कई पशु हैं।
इसे भगवान शिव का पशुपति रूप माना जाता है।
प्रथम देवता होने के कारण ही इन्हें ही सृष्टिकर्ता मान लिया गया और लिंग रूप में इनकी पूजा शुरू हो गयी।
वास्तव में देखा जाए तो शिवलिंग हमारे ब्रह्मांड की आकृति है, इसके अलावा वह पुरुष और प्रकृति (स्त्री) के बीच समानता और सामजंस्य का प्रतीक भी माना गया है।
