वराह कवचम 

अध्यं रन्गमिथि प्रोक्थं विमानं रङ्ग संग्निथं,
श्री मुष्णं, वेन्कतद्रि च सलग्रमं च नैमिसं,
 
थोथद्रीं पुष्करं चैव नर नारायनस्रमं,
आश्तौ मय मुर्थय संथि स्वयम् व्यक्था महि थाले|
 
श्री सुथ :
 
श्री रुद्र निर्नीथ मुररि गुण सतः सागर,
संथुष्ट परवथि प्राह संकरं, लोक संकरं |
 
श्री पार्वती उबाच :
 
श्री मुष्णेसस्य महाथ्म्यं, वराहस्य महत्ह्मन,
श्रुथ्व थ्रुप्थिर न मय जथ मन कौथुहलयथे,
स्रोथुं थाधेव महाथ्म्यं, थास्माद वर्णया मय पुन|
 
श्री शंकर उवाच :
 
शृणु देवी प्रवक्ष्यामि, श्री मुष्णस्य वैभवं,
यस्य श्रवण मथ्रेण महा पापै प्रमुच्यथे
 
सर्वेषां एव थीर्थानां थीर्थ रजो अभिधीयथे,
नित्य पुष्करिणी नाम्नि श्री मुष्णो य च वर्थाथे,
 
जथ स्रमपाह पुण्य वराहस्रम वारिणा
विष्णोर अन्गुष्ट सं स्पर्सणतः पुण्यधा खलु जःणवी,
 
विष्णो सर्वाङ्ग संभूथ, नित्य पुष्करिणी शुभ
महा नाधि सहस्रेण निथ्यध संगध शुभ,
 
सकृतः स्नथ्व विमुक्थाघ, साध्यो यदि हरे पदं
थस्य अज्ञेय भागे थु अस्वथ् चय योधके,
 
स्नानं क्रुथ्व पिप्पलस्य क्रुथ्व च अभि प्रदक्षिणं.
ड्रुश्त्व श्वेथ वराहं च मासमेकं नयेध्यधि,
 
कला मृत्यु विनिर्जिथ्य, श्रिया परमया सुथा
अधि व्याधि विनिर्मुक्थो ग्रहं पीडा विवर्जिथ,
 
उक्थ्व भोगान अनेकंस्च मोक्षमन्थे व्रजेतः द्रुवं.
आश्र्वथ मूले अर्क वरे नित्य पुष्क्सरिणी तते,
 
वराह कवचं जप्थ्व साथ वरं जिथेन्द्रिय.
क्षय अपस्मार कुष्टद्यै महा रोगै प्रमुच्यथे,
 
वराह कवचं यस्थु प्रथ्याहं पदाथे यथि.
शत्रु पीडा विनिर्मुक्थो भूपथिथ्वम् आप्नुयतः,
 
ळिखिथ्व धरयेध्यस्थु बहु मूले गलेधव.
भूथ प्रेथ पिसचध्य यक्ष गन्धर्व राक्षस,
 
शथ्रुवो गोर कर्मणो येअ चान्यै विष जन्थाव,
नष्ट धरप विनस्यन्थि विद्रवन्थि धिसो दस
 
 
श्री पार्वती उबाच
 
ततः ब्रूहि कवचं मह्यं येन गुप्तः जगथ्रये.
संचरेतः देव वन मर्थ्य सर्व शत्रु विभीषण,
येन आप्नोथि च साम्राज्यं थान्मे ब्रूहि सदा शिव.
 
श्री शंकर उवाच :
 
शृणु कल्याणि वक्ष्यामि वरकवचं शुभं,
येन गुप्थो लबेतः मर्त्यो विजयं सर्व संपदं.
 
अन्गरक्षकरं पुण्यं महा पथक नासनं,
सर्व रोग प्रसमानं, सर्व दुर्ग्रःअनासनं.
 
 
 
विष अभिचार कृथ्यधि शत्रु पीडा निवारणं,
नोक्थं कस्यापि पूर्व हि गोप्यतः गोप्यथारं यदा.
 
वराहेण पुरा प्रोक्थं मह्यं च परमेष्तिने,
युधेषु जयधं देवी शत्रु पीडा निवारणं.
 
वराह कवचातः गुप्थो न शुभं लभाथे नर,
वराह कवचस्यस्य ऋषिर ब्रह्म प्रकीर्थिथ,
 
चन्धो अनुष्टुप् तधा देवो वराहो भू परिग्रह,
प्रक्षाल्य पधौ पाणि च संयगचम्य वारिणा.
 
अङ्ग कर न्यास स पवित्र उदन्ग मुख,
ॐ भूर भुव सुवरिथि नमो भू पथ येऽपि च.
 
तथो भग्वथे पश्चाद वराहाय नमस्त्धा,
येवं षडङ्गं न्यासं च न्यसेद अङ्गुलीषु क्रमतः.
 
नाम स्वेथवरहय महा कोलय भूपाथे,
यज्ञन्गय शुभाङ्गाय सर्वज्ञाय परमथ्मने.
 
स्थ्र्वथुन्दाय धीराय पर ब्रह्म स्वरूपिने,
वक्र दंष्ट्रय निथ्याय नमो अन्थर्यमिनि क्रमतः.
 
अङ्गुलीषु न्यसेद विध्वन् कर प्रष्टे थालेश्वापि,
ढ्यथ्व श्र्वेथवरहम् च पश्चाद मन्थर मुधीरयतः.
 
ध्यानं
 
ॐ स्वेथम् वराह वपुषं क्षिथि म उद्वरन्थम्,
संखरी सर्व वरद अभय युक्था बाहुं,
 
ध्ययेन निर्जैस्च थानुभि सकलै रूपेथं,
पूर्ण विभुं सकल वन्चिथ सिध्ये अजं.
 
वराह पूर्वथा पथु, दक्षिणे दन्दकन्त्हक,
हिरण्याक्ष हर पथु पश्चिम गदययुधा.
 
उथरे भूमि हृद पथु अगस्थाद्वयु वहन,
ओर्ध्व पथु हृषिकेसो दिग्विदिक्षु गद धर.
 
प्रथा पथु प्रजनाध, कल्पक्रुतः संगमे अवथु,
मद्यःने वज्र केसस्थु, सयःने सर्व पूजिथ.
 
प्रदोषे पाहु पद्माक्षो, रथ्रौ राजीव लोचन,
निसीन्द्र गर्वह पथु पथुष परमेश्वर.
 
अदव्यं अग्रज पथु, गमेन गरुडासना,
स्थले पथु महा थेज, जले पथ्व अवनि पथि.
 
गृहे पथु गृहद्यक्षो, पद्मनाभ पुरोवथु,
जिल्लिक वरद पथु स्वग्रमे करुणाकर.
 
रणाग्रे दैथ्याह पत्र्हु, विषमे पथु चक्र ब्रुतः,
रोगेषु वैद्यरजस्थु, कोलो व्यधीषु रक्षथु.
 
थापत्रयतः थापो मुर्थ्य, कर्म पसच विस्व कृतः,
कलेस कालेषु सर्वेषु पथु पद्स्मवथिर विभु.
 
हिरण्यगर्भ संस्थुथ्य पधौ पथु निरन्थरं,
ग़ुल्फौ गुणाकर प्थु, जङ्गे पथु जनार्धन.
 
जानु च जयक्रुतः पथु पथुरु पुरुशोथाम,
रक्थाक्षो जागने पथु कटिं विस्वम्बरो अवथु.
 
अर्स्वे पथु सुराध्यक्ष. पथु कुक्षीं परथ्पर,
नाभिं ब्रह्म पिथ पथु हृदयं ह्रुदयेस्वर.
 
महादंष्ट्रा स्थनौ पथु, कन्दं पथु विमुक्थिध,
प्रबन्ज्ञा पथिर बहु, करौ काम पिथवथु.
 
हस्थु हंसपथि पथु, पथु सर्वन्गुलीर हरि,
सर्वन्गस्चिबुकं पथु पथ्वोष्टि कला नेमि नीह.
 
मुखं पथु मधुहा, पथु दन्थं दमोदरवथु,
नासिकां अव्यय पथु, नेत्रे सुर्येण्डु लोचन.
 
फलं कर्म फलद्यक्ष, पथु कर्नौ महा राधा,
सेष शयी सिर पथु, केसन पथु निरामय.
 
सर्वाङ्गं पथु सर्वेस, सदा पथु सथीस्वर,
इथेधं कवचं पुण्यं वराहस्य महत्ह्मन.
 
य पदेतः स्रुनुयथ्वापि, थस्य मृथ्युर विनस्यथि,
थं नमस्यन्थि भूथानि, भीठ संजलिपनाय.
 
राजदस्य भयं नस्थि, रज्यब्रंसो न जयथे,
यन्नमस्मरणतः भीठ भूथ, वेताल, राक्षस.
 
महारोगस्च नस्यन्थि, सत्यं सत्यं वदंयाहं,
कन्दे थु कवचं भधूध्व, वन्ध्या पुथ्रवत्र्हि भवेतः.
 
शत्रु सैन्यक्षय प्रप्थि, दुख प्रसमानं तधा,
उथ्पथ दुर्निमिथथि सूचिथ अरिष्ट नासनं.
 
ब्रह्म विध्य प्रबोधं च लबथे नात्र संसय,
द्रुथ्वेदं कवचं पुण्यं मन्दथ पर वीरहा.
 
ज्ञीथ्व थु संबरीं मयं दैथ्येन्दनवधीतः क्षणतः,
कवचेनवृथो भूथ्व देवेन्द्रोपि सुरारिह.
 
भूम्योपदिष्ट कवच धारण नरकोपि च,
सर्व वध्यो जयी भूथ्व, महाथीं कीर्थि मप्थवन्.
 
आस्वथ मूले अर्क वरे नित्य पुषकरणी तते,
वराह कवचं जप्थ्व सथवरं पतेध्यदि.
 
अपूर्व राज्य संप्रप्थि नष्टस्य पुनरगमं,
लब्धे नात्र संदेह सथ्य मेदन मयोदिथं.
 
ज्ञप्थ्व वराह मन्त्रं थु लक्षमेकं निरन्थरं,
दसंसं थार्पनं होमं पायसेन द्रुथेन च.
 
कुर्वन त्रिकाल संध्यासु कवचेनवृथो यदि,
भूमण्डल अधिपथ्यं च ह लभदे नात्र संसय.
 
इधं उक्थं मया देवी गोपनेयं दुरथ्मन,
वर कवचं पुण्यं ससरर्नव थारकं.
 
महापथाक कोतिग्नं, भुक्थि मुक्थि फल प्रधं,
वाच्यं पुथ्राय शिष्याय सदु द्रुथाय सु धीमाथे.
 
श्री सुथ :
 
इथि पथ्युर वच स्रुथ्व देवी संथुष्ट मनसा,
विनायक गुहौ पुथ्रौ प्रपेधे सुरर्चिथौ.
 
कवचस्य प्रभावेन लोक मथ च पर्वत्ह्य,
य इधं स्रुनुयन नित्यं, योवा पदथि निथ्यसा.
स मुक्था सर्व पापेभ्यो विष्णु लोके महीयथे.
 
Shree Varaha Kavach वराह कवचम
 

Leave a comment