धर्मराज कर सिद्ध काज,प्रभु मैं शरणागत हूँ तेरी ।
पड़ी नाव मझदार भंवर में,पार करो, न करो देरी ॥
॥ धर्मराज कर सिद्ध काज..॥
धर्मलोक के तुम स्वामी,श्री यमराज कहलाते हो ।
जों जों प्राणी कर्म करत हैं,तुम सब लिखते जाते हो ॥
अंत समय में सब ही को,तुम दूत भेज बुलाते हो ।
पाप पुण्य का सारा लेखा,उनको बांच सुनते हो ॥
भुगताते हो प्राणिन को तुम, लख चौरासी की फेरी ॥
॥ धर्मराज कर सिद्ध काज..॥
चित्रगुप्त हैं लेखक तुम्हारे,फुर्ती से लिखने वाले ।
अलग अगल से सब जीवों का,लेखा जोखा लेने वाले ॥
पापी जन को पकड़ बुलाते,नरको में ढाने वाले ।
बुरे काम करने वालो को,खूब सजा देने वाले ॥
कोई नही बच पाता न,याय निति ऐसी तेरी ॥
॥ धर्मराज कर सिद्ध काज..॥
दूत भयंकर तेरे स्वामी,बड़े बड़े दर जाते हैं ।
पापी जन तो जिन्हें देखते ही,भय से थर्राते हैं ॥
बांध गले में रस्सी वे,पापी जन को ले जाते हैं ।
चाबुक मार लाते,जरा रहम नहीं मन में लाते हैं ॥
नरक कुंड भुगताते उनको,नहीं मिलती जिसमें सेरी ॥
॥ धर्मराज कर सिद्ध काज..॥
धर्मी जन को धर्मराज,तुम खुद ही लेने आते हो ।
सादर ले जाकर उनको तुम,स्वर्ग धाम पहुचाते हो ।
जों जन पाप कपट से डरकर,तेरी भक्ति करते हैं ।
नर्क यातना कभी ना करते,भवसागर तरते हैं ॥
कपिल मोहन पर कृपा करिये,जपता हूँ तेरी माला ॥
॥ धर्मराज कर सिद्ध काज..॥