हरतालिका तीज: एक पारंपरिक हिंदू त्योहार | Hartalika Teej 2024

वैदिक पंचांग के अनुसार, भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि के दिन हरतालिका तीज पर्व मनाया जाता है। हरतालिका तीज एक महत्वपूर्ण हिंदू त्योहार है जो पूरे भारत में विवाहित और अविवाहित महिलाओं द्वारा बड़े उत्साह और भक्ति के साथ मनाया जाता है। यह लेख हरतालिका तीज से जुड़े इतिहास, रीति-रिवाजों, महत्व और सांस्कृतिक पहलुओं की गहन समझ प्रदान करेगा।

विषयजानकारी
त्योहार का नामहरतालिका तीज
मनाने की तारीखयह त्योहार हिन्दू माह भाद्रपद के शुभ पक्ष के तीसरे दिन को मनाया जाता है।
ऐतिहासिक महत्वमां पार्वती और भगवान शिव के मिलन की स्मृति।
हरतालिका तीज के पीछे की कथामां पार्वती के तपस्या और स्वर्णा गौरी की मित्रता की कथा।
मुख्य अनुसरणमहिलाओं द्वारा उपवास और ब्रतचर्य, फिर शाम के रितुअलों का पालन किया जाता है।
पूजा और आराधनामां पार्वती को फूल, फल, और मिठाई की भेंट दी जाती है।
उपवास की प्रतीकतापतिव्रता धर्म के प्रति समर्पण और विवाहित जीवन के लिए समृद्धि की इच्छा।
झूला सजावटफूलों और पत्तियों से सजे झूले, जो खुशी की प्रतीक होते हैं।
महत्व धाराओं से परेप्रेम, मित्रता, और विवाह के पवित्रता का जश्न।
परंपरागत गीत और नृत्यगावचड़ी गीत और महिलाएं गोदड़ नृत्य करती हैं, जो मां पार्वती और भगवान शिव की कहानी का वर्णन करते हैं।
मेहंदी डिज़ाइनहीना के जटिल डिज़ाइन का लागू किया जाता है, जो सौंदर्य और शुभता का प्रतीक होता है।
पारंपरिक परिधानमहिलाएं पारंपरिक परिधान पहनती हैं, अक्सर हरा रंग के।
पुरुषों की भागीदारीयह त्योहार प्रमुखत: महिलाओं द्वारा मनाया जाता है, लेकिन पुरुष विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक आयामों में महिलाओं का समर्थन करते हैं।
उत्सवी वातावरणसंगीत, नृत्य, और त्योहारी खाने की सुगंध के साथ जीवंत।
आधुनिक जश्नपारंपरिक रीति-रिवाजों को समकलीन तत्वों के साथ मेल कर मनाना।
निष्कर्षहरतालिका तीज महिलात्व, प्रेम, और विवाह की महत्वपूर्ण तिथि की प्रशंसा करता है।

यह सारांशत: हरतालिका तीज के विस्तारित जानकारी प्रदान करता है, जिसमें इसका इतिहास, परंपराएँ, महत्व, और सांस्कृतिक पहलुओं का विवरण है

हरतालिका तीज का इतिहास

Table of Contents

हरतालिका तीज की एक समृद्ध ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है जो हिंदू पौराणिक कथाओं में गहराई से निहित है। यह हिंदू माह भाद्रपद के शुक्ल पक्ष के तीसरे दिन मनाया जाता है। पौराणिक कथा के अनुसार, यह त्योहार देवी पार्वती और भगवान शिव के पुनर्मिलन का जश्न मनाता है।

हरतालिका तीज 2024 कब है – हरतालिका तीज 2024 मुहूर्त टाइम

शुक्रवार6 सितंबर 2024

हिन्दू पंचांग के अनुसार, भाद्रपद माह में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि की शुरुआत,

हरतालिका तीज पूजा समय :
तृतीया तिथि शुरू : 12:25 – 5 सितंबर 2024
तृतीया तिथि ख़त्म : 15:05 – 6 सितंबर 2024

हरतालिका तीज की पौराणिक कथा

किंवदंती है की प्राचीन समय में जब देवी पार्वती ने अपने पिता राजा हिमवान की इच्छा के विरुद्ध भगवान शिव से विवाह करने का निर्णय लिया था। अपने पिता के क्रोध से बचने के लिए, वह अपनी सहेलियों के साथ जंगल में चली गयी और कठोर तपस्या की। इस समय के दौरान उनकी सहेली स्वर्ण गौरी ने भगवान शिव के साथ उनके पुनर्मिलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपनी दोस्ती का सम्मान करने के लिए, महिलाएं देवी पार्वती की पूजा करके और सुखी वैवाहिक जीवन के लिए उनका आशीर्वाद मांगकर हरतालिका तीज मनाती हैं।

हरतालिका तीज काअनुष्ठान

उपवास और संयम

हरतालिका तीज मुख्य रूप से महिलाओं द्वारा मनाये जाने वाले कठोर व्रत के लिए जाना जाता है। वे पूरे दिन भोजन और पानी ग्रहण नहीं करती, शाम की पूजा की रस्में निभाने के बाद ही अपना उपवास तोड़ते हैं। यह व्रत अपने जीवनसाथी के प्रति उनके समर्पण और प्यार का प्रतीक है और माना जाता है कि यह उनके वैवाहिक जीवन में समृद्धि लाता है।

हरतालिका तीज पूजा और आराधना

इस दिन महिलाएं जल्दी उठकर स्नान करती हैं। वे खुद को सुंदर पारंपरिक पोशाक और आभूषणों से सजाते हैं, जो अक्सर हरे रंग के होते हैं, जो इस अवसर के लिए शुभ माना जाता है। मुख्य पूजा में देवी पार्वती को फूल, फल और मिठाइयाँ चढ़ाना शामिल है। विवाहित महिलाएं अपने पतियों की सलामती के लिए प्रार्थना करती हैं और सौहार्दपूर्ण वैवाहिक जीवन के लिए आशीर्वाद मांगती हैं।

झूले की सजावट

झूले हरतालिका तीज उत्सव का एक अभिन्न अंग हैं। महिलाएं झूले को फूलों और पत्तियों से सजाती हैं और खुशी और उत्सव के प्रतीक के रूप में झूलने का आनंद लेती हैं। यह रिवाज भगवान कृष्ण और राधा की चंचल प्रकृति का प्रतीक है और त्योहार के उल्लास को बढ़ाता है।

हरतालिका तीज का महत्व

हिंदू संस्कृति में हरतालिका तीज का बहुत महत्व है। यह सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है बल्कि नारीत्व, प्रेम और दोस्ती का उत्सव भी है। यह त्यौहार इस विचार को पुष्ट करता है कि दोस्तों और जीवनसाथी के बीच के बंधन को संजोया और संरक्षित किया जाना चाहिए।

पारंपरिक गीत और नृत्य

पारंपरिक लोक गीतों और नृत्यों के बिना हरतालिका तीज अधूरी है। महिलाएं समूहों में इकट्ठा होती हैं और मधुर तीज गीत गाती हैं जो देवी पार्वती और भगवान शिव की कहानी बताते हैं। ये गाने उत्सव के दौरान एक जीवंत और आनंदमय माहौल बनाते हैं।

हाथों और पैरों में मेहंदी लगाना

हरतालिका तीज के दौरान हाथों और पैरों पर सुन्दर मेहंदी लगाना एक पोषित परंपरा है। महिलाएं सुंदरता और शुभता के प्रतीक के रूप में मेंहदी लगाकर खुद को सजाती हैं, जिसमें अक्सर प्यार और विवाह के प्रतीक शामिल होते हैं।

हरतालिका नाम क्यूँ पड़ा

माता गौरी के पार्वती रूप में वे शिव जी को पति रूप में चाहती थी, इसके लिए माता पार्वति ने कठिन तपस्या की थी। हरतालिका दो शब्दों से बना है, हर और तालिका। हर का अर्थ है हरण करना और तालिका अर्थात सखी। यह पर्व भाद्रपद की शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है, इसलिए इसे तीज कहते हैं। इस व्रत को हरतालिका इसलिए कहा जाता है, क्योंकि पार्वती की सखी उन्हें पिता के घर से हरण कर जंगल में ले गई थी। इस करण इस व्रत को हरतालिका कहा गया हैं क्यूंकि हरत मतलब अगवा करना एवम आलिका मतलब सहेली अर्थात सहेलियों द्वारा अपहरण करना हरतालिका कहलाता हैं.

हरतालिका तीज व्रत के नियम

महिलाएं करवा चौथ का व्रत रात्रि में चंद्रमा पूजन के बाद खोला लिया जाता है, कजरी तीज का व्रत भी महिलाएं फलाहार करती हैं, वहीं वट सावित्री व्रत में पूजा बाद महिलाएं फलाहार करती हैं। लेकिन हरतालिका तीज का व्रत निर्जला रखा जाता है, यानी इसमें महिलाएं अन्न, जल और फल सभी चीजों का पूरी तरह से त्याग करती हैं और अगले दिन सूर्योदय के बाद कुछ खाया पिया जा सकता है। इस व्रत में सोना भी वर्जित है।

  • हरतालिका व्रत निर्जला किया जाता हैं, अर्थात पूरा दिन एवं रात इस व्रत का पालन किया जाता है और अगले दिन सूर्योदय तक जल ग्रहण नहीं किया जाता।
  • हरतालिका व्रत कुवांरी कन्या, सौभाग्यवती महिलाओं द्वारा किया जाता हैं और इसे विधवा महिलायें भी कर सकती हैं।
  • हरतालिका व्रत का नियम हैं कि इसे एक बार प्रारंभ करने के बाद छोड़ा नहीं जा सकता। इसे प्रति वर्ष पुरे नियमो के साथ किया जाता हैं और अगर कोई इस्त्री की स्वास्थ्य कारणों से इसका पालन नहीं कर सकती तो उसके पति को इस व्रत का पालन करना पड़ता है।
  • हरतालिका व्रत के दिन रतजगा किया जाता हैं। पूरी रात महिलायें एकत्र होकर नाच गाना एवम भजन करती है। नये वस्त्र पहनकर पूरा श्रृंगार करती हैं और माता पार्वती की पूजा करती है।
  • हरतालिका व्रत जिस घर में भी होता हैं। वहाँ इस पूजा का खंडन नहीं किया जा सकता अर्थात इसे एक परम्परा के रूप में प्रति वर्ष किया जाता हैं।
  • सामान्यतह महिलायें यह हरतालिका पूजन मंदिर में करती हैं।
  • हरतालिका व्रत के दिन पूजा में व्रत कथा जरूर पढ़ें. क्योंकि व्रत कथा पढ़े या श्रवण किए बिना व्रत पूरा नहीं माना जाता है.

हरतालिका पूजा का आरम्भ

हरतालिका पूजा का आरम्भ नित्य क्रिया से निवृत्त होकर आचमन कर देश, काल, ऋतु, मास, पक्ष तिथि आदि का उच्चारण करते हुए संकल्प करे – ‘ॐ अद्येत्यादिदेशकालौ स्मृत्वा- सर्वपापक्षयपूर्वक – सप्तजन्मराज्याति-सौभाग्याऽवैधव्य पुत्रपौत्रादि-वृद्धि-सकल- भोगान्तरशिवलोक-महिमत्वकामनया सोपवास- हरितालिकाव्रतनिमित्तं यथाशक्ति- जागरणपूर्वक – उमामहेश्वर-पूजनमहं करिष्ये निम्न क्रमानुसार पूजन करें- 

ध्यानम्
मन्दारमालाकुलितालकायै कपालमालांकितशेखराय।
दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नमः शिवायै च नमः शिवाय॥

आवाहनम्
आगच्छ देवि सर्वेशे सर्वदेवाश्च संस्तुते।
अतस्त्वां पूजयिष्यामि प्रसन्ना भव पार्वति॥

आसनम्
शिवे शिवप्रिये देवि मङ्गले च जगन्मये।
शिवे कल्याणदे देवि शिवरूपे नमोऽस्तु ते॥

पाद्यम्
शिवरूपे नमस्तेऽस्तु शिवाय सततं नमः।
शिवप्रीतियुता नित्यं पाद्यं मे प्रतिगृह्यताम्॥

अर्घ्यम्
संसारतापविच्छेदं कुरु मे सिहवाहिनि।
सर्वकामप्रदे देवि अर्घ्यं मे प्रतिगृह्यताम्॥

आचमनम्
राज्यसौभाग्यदे देवि प्रसन्ना भव पार्वती।
मन्त्रेणानेन देवि त्वं पूजिताऽसि महेश्वरि॥
लोकानां तुष्टिकर्त्री च मुक्तिदा च सदा नृणाम्।
वाञ्छितं देहि मे नित्यं दुरितं च विनाशय॥ 

पञ्जचामृतस्नान
पञ्चामृतं मयाऽऽनीतं पयो दधिघृतं मधु।
शर्करा च समायुक्तं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्॥

शुद्धजलस्नानम्
मन्दाकिनी गोमती च कावेरी च सरस्वती।
कृष्णा च तुङ्गभद्रा च सर्वाः स्नानार्थमागताः॥

वस्त्रम्
वस्त्रयुग्मं गृहाणेदं देवि देवस्य वल्लभे ।
सर्वसिद्धिप्रदे देवि मङ्गलं कुरु मे सदा॥ 

चन्दनम्
चन्दनेन सुगन्धेन कर्पूरागुरुकुङ्कुमैः।
लेपयेत् सर्वगात्राणि प्रीयतां च हरप्रिये॥

अक्षतान्
रंजिते कुंकुमेनैव अक्षतैश्च सुशोभनैः।
पूजयेद्विधिना देवि सुप्रसन्ना च पार्वतीम्॥

पुष्पम्
माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि वै प्रभो।
मया दत्तानि पूजायाः पुष्पाणि प्रतिगृह्यताम्॥ 

धूपम्
चन्दनागरुकस्तूरी कुंकुमाढ्या मनोहराः।
भक्त्या दत्ता मया देवि धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम्॥ 

दीपम्
त्वं ज्योतिः सर्वदेवानां तेजसां तेज उत्तमम्।
आत्मज्योतिः परं धाम दीपोऽयं प्रतिगृह्यताम्॥ 

नैवेद्यम्
नैवेद्यं गृह्यतां देवि भक्तिं मे निश्चलां कुरु।
ईप्सितं च वरं देहि परत्र च परां गतिम्॥ 

फलम्
इदं फलं मया देवि स्थापितं पुरतस्तव।
येन मे सफलं कर्म भवेज्जन्मनि जन्मनि॥

ताम्बूलम्
पूगीफलं महद् दिव्यं नागवल्लीदलैर्युतम्।
कर्पूरेण समायुक्तं ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम्॥ 

दक्षिणा
हिरण्यगर्भगर्भस्थं हेमबीजं विभावसोः।
अनन्तपुण्यफलदमतः शान्तिं प्रयच्छ मे।

प्रार्थना
सौभाग्यं चाप्यवैधव्यं पुत्र-पौत्रादिकं सुखम्।
बहुपुण्यफलं सर्वमतः शान्तिं च देहि मे॥ 
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं यदीश्वरी।
पूजिताऽसि महादेवि सम्पूर्णं च वदस्व मे॥

हरतालिका तीज व्रत कथा

पौराणिक मान्यता के अनुसार, माता पार्वती के पूर्व जन्म ( सति रूप ) में पिता दक्ष के यज्ञ में अपने पति शिव का अपमान सहन नहीं कर पाई थीं और उन्होंने खुद को यज्ञ कुंड की अग्नि में भस्म कर दिया।

अगले जन्म में उन्होंने राजा हिमाचल के यहां पार्वती के रूप में जन्म लिया और इस जन्म में भी उन्होंने भगवान शंकर को ही पति के रूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या की थी। देवी पार्वती ने भगवान शिव जी को अपना पति मान लिया था और वह सदैव शिव की तपस्या में लीन रहतीं थीं। उनकी हालत देखकर राजा हिमाचल को चिंता सताने लगी और उन्होंने नारद जी से इस बारे में बात की। नारदः जी माता पार्वती के गुरु थे।

राजा हिमाचल ने नारद जी से देवी पार्वती का विवाह भगवान विष्णु से कराने का निश्चय किया । लेकिन देवी पार्वती विष्णु जी से विवाह नहीं करना चाहती थीं। देवी पार्वती ने अपने मैं की बात अपनी सखियों को बताई।

पार्वति के मन की बात जानकर उनकी सखियां उन्हें लेकर घने जंगल में चली गईं। कियुँकि उन्होंने सोचा की अगर पार्वती को राज महल में रहने दिया जाता है तो राजा हिमाचल इनका विवाह विष्णु जी के साथ निश्चित कर देंगे।

जंगल में अपनी सखियों की सलाह से पार्वती जी ने एक गुफा में भगवान शिव की अराधना की। भाद्रपद तृतीया शुक्ल के दिन हस्त नक्षत्र में पार्वती जी ने मिट्टी से शिवलिंग बनाकर विधिवत पूजा की और रातभर जागरण किया। पार्वती जी के तप से खुश होकर भगवान शिव ने माता पार्वती को पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया था। इस तरह सखियों द्वारा उनका हरण कर लेने की वजह से इस व्रत का नाम हरतालिका व्रत पड़ा।

भाद्रपद शुक्ल तृतीया तिथि के हस्त नक्षत्र में माता पार्वती ने रेत से शिवलिंग का निर्माण किया और भोलेनाथ की स्तुति में लीन होकर रात्रि जागरण किया। साथ ही उन्होंने अन्न का त्याग भी कर दिया। ये कठोर तपस्या 12 साल तक चली। पार्वती के इस कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव ने उन्हें दर्शन दिए और इच्छा अनुसार उनको अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया। इसलिए हर साल महिलाएं अखंड सौभाग्य के लिए इस व्रत को करती हैं।

हरतालिका व्रत कथा शिवजी ने ही मां पार्वती को सुनाई थी

मन्दारमालाकुलितालकायै कपालमालाङ्कितशेखराय।
दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ १ ॥
(पूजन करने के बाद हरतालिका तीज व्रत कथा सुनें) सूतजी कहते हैं- मन्दार की माला से जिन (पार्वती जी) का केशपाश अलंकृत और मुण्डों की माला से जिन (शिव जी) की जटा अलंकृत है, जो (पार्वतीजी) दिव्य वस्त्र धारण की हैं और जो (शिवजी) दिगम्बर (नग्न) हैं, ऐसी श्रीपार्वतीजी तथा शिवजी को प्रणाम करता हूँ ॥ १ ॥

कैलासशिखरे रम्ये गौरी पृच्छति शङ्करम्।
गुह्याद् गुह्यतरं गुह्यं कथयस्व महेश्वर ॥ २ ॥
रमणीक कैलास पर्वत के शिखर पर बैठी हुई श्री पार्वती जी कहती हैं- हे महेश्वर! हमें कोई गुप्त व्रत या पूजन बताइये ॥ २ ॥

सर्वेषां सर्वधर्माणामल्पायासं महत्फलम् ।
प्रसन्नोऽसि मया नाथ तथ्यं ब्रूहि ममाग्रतः ॥ ३ ॥
जो सब धर्मों से सरल हो, जिसमें परिश्रम भी कम करना पड़े, लेकिन फल अधिक मिले। हे नाथ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हों तो यह विधान बताइये ॥ ३॥

केन त्वं हि मया प्राप्तस्तपोदानव्रतादिना ।
अनादिमध्य-निधनो भर्ता चैव जगत्प्रभुः॥४॥
हे प्रभो! किस तप, व्रत या दान से आदि, मध्य और अन्त रहित आप जैसे महाप्रभु हमको प्राप्त हुए हैं ॥ ४ ॥

ईश्वर उवाच- शृणु देवि ! प्रवक्ष्यामि तवाग्रे व्रतमुत्तमम्।
यद्गोप्यं मम सर्वस्वं कथयामि तव प्रिये ॥ ५ ॥

शिवजी बोले – हे देवि! सुनो, मैं तुमको एक व्रत जो मेरा सर्वस्व और छिपाने योग्य है, लेकिन तुम्हारे प्रेम के वशीभूत होकर मैं तुम्हें बतलाता हूँ ॥५॥

यथा चोडुगणे चन्द्रो ग्रहाणां भानुरेव च।
वर्णानां च यथा विप्रो देवानां विष्णुरेव च ॥ ६ ॥

जैसे-नक्षत्रों से चन्द्रमा, ग्रहों में सूर्य, वर्णों में ब्राह्मण, देवताओं में विष्णु भगवान् ॥ ६ ॥ 

नदीनां च यथा गंगा पुराणानां च भारतम्।
वेदानां च यथा साम इन्द्रियाणां मनो यथा॥ ७ ॥
 
नदियों में गंगा, पुराणों महाभारत, वेदों में सामवेद और इन्द्रियों में मन श्रेष्ठ है ॥७॥ 

पुराणानां वेदसर्वस्वं आगमेन यथोदितम्।
एकाग्रेण शृणुष्वैतद्यथा दृष्टं पुरा व्रतम् ॥ ८ ॥
सब पुराण और वेदों का सर्वस्व जिस तरह कहा गया है, मैं तुम्हें एक प्राचीन व्रत बतलाता हूँ, एकाग्र मन से सुनो ॥८॥

येन व्रतप्रभावेण प्राप्तमर्द्धासनं मम । 
तत्सर्वं कथयिष्येऽहं त्वं मम प्रेयसी यतः॥ ९ ॥
जिस व्रत के प्रभाव से तुमने मेरा आधा आसन प्राप्त किया है, वह मैं तुमको बतलाऊँगा, क्योंकि तुम मेरी प्रेयसी हो ॥ ९ ॥ 

भाद्रे मासि सिते पक्षे तृतीया – हस्तसंयुते।
तदनुष्ठानमात्रेण सर्वपापात् प्रमुच्यते ॥ १० ॥
भाद्रपद मास में हस्त नक्षत्र से युक्त शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को उसका अनुष्ठान मात्र करने से स्त्रियाँ सब पापों से मुक्त हो जाती हैं ॥ १० ॥ 

शृणु देवि त्वया पूर्वं यद् व्रतं चरितं मम ।
तत्सर्वं कथयिष्यामि यथा वृत्तं हिमालये ॥ ११ ॥ 

हे देवि! तुमने आज से बहुत दिनों पहले हिमालय पर्वत पर इस व्रत को किया था, यह वृत्तान्त मैं तुमसे कहूँगा ॥ ११ ॥

पार्वत्युवाच
कथं कृतं मया नाथ व्रतानामुत्तमं व्रतम् ।
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि त्वत्सकाशान्महेश्वर ॥ १२ ॥

पार्वतीजी ने पूछा – हे नाथ! मैंने क्यों यह व्रत किया था, यह सब आपके मुख से सुनना चाहती हूँ ॥ १२ ॥

शिव उवाच
अस्ति तत्र महान्दिव्यो हिमवान्वै नगेश्वरः।
नानाभूमिसमाकीर्णो नाना- द्रुमसमाकुलः ॥ १३ ॥

शिवजी ने कहा- भारतवर्ष के उत्तर की ओर एक बड़ा रमणीक और पर्वतों में श्रेष्ठ हिमवान् नामक पर्वत है। उसके आस-पास तरह-तरह की भूमियाँ हैं, तरह-तरह के वृक्ष उस पर लगे हुए हैं ॥ १३ ॥

नानापक्षिसमायुक्तो नानामृगविचित्रतः।
यत्र देवाः सगन्धर्वाः सिद्धचारणगुह्यकाः ॥ १४ ॥
विचरन्ति सदा हृष्टागन्धर्वा गीततत्पराः।
स्फटिकैः काञ्चनं शृङ्गं मणिवैदूर्यभूषितम् ॥ १५ ॥
नाना प्रकार के पक्षी और अनेक प्रकार के पशु उस पर निवास करते हैं। वहाँ पहुँच कर गन्धर्वों के साथ बहुत से देवता, सिद्ध, चारण, पक्षीगण सर्वदा प्रसन्न मन से विचरते हैं। वहाँ पहुँच कर गन्धर्व गाते हैं, अप्सरायें नाचती हैं। उस पर्वतराज के कितने ही शिखर ऐसे हैं कि जिनमें स्फटिक, रत्न और वैदूर्यमणि आदि की खानें भरी हैं॥ १४-१५ ॥

भुजैर्लिखन्निवाकाशं सुहृदो मन्दिरं यथा।
हिमेन पूरितं सर्वं गंगाध्वनिविनोदितः ॥ १६ ॥
यह पर्वत ऊँचा तो इतना अधिक है कि मित्र के घर की तरह समझ कर आकाश का स्पर्श किये रहता है। उसके समस्त शिखर सदैव हिम (बर्फ) से आच्छादित रहते हैं और गङ्गा-जल की ध्वनि सदा सुनाई देती रहती है॥ १६ ॥

पार्वति त्वं यथा बाल्ये परमाचरती तपः।
अब्दद्वादशकं देवि धूम्रपानमधोमुखी ॥ १७ ॥
हे पार्वती! तुमने बाल्यकाल में उसी पर्वत पर तपस्या की थी। बारह वर्ष तक तुम उलटी टँगकर केवल धुआँ पीकर रहीं ॥ १७ ॥ 

संवत्सरचतुःषष्टि पक्वपर्णाशनं कृतम्।
माघमासे जले मग्ना वैशाखे चाग्निसेविनी ॥ १८ ॥
चौंसठ वर्ष तक सूखे पत्ते खाकर रहीं। माघ मास में तुम जल मैं बैठी रहतीं और वैशाख की दुपहरिया में पंचाग्नि तापती थीं ॥ १८ ॥

श्रावणे च बहिर्वासा अन्नपानविवर्जिता।
दृष्ट्वा तातेन तत्कष्टं चिन्तया दुःखितोऽभवत् ॥ १९ ॥
श्रावण के महीने में जल बरसता तो तुम भूखी-प्यासी रहकर मैदान में बैठी रहती थीं। तुम्हारे पिता इस तरह के कष्ट सहन को देख कर बड़े दुःखी हुए ॥ १९ ॥

कस्मै देया मया कन्या एवं चिन्तातुरोऽभवत् ।
तदैवावसरे प्राप्तो ब्रह्मपुत्रस्तु धर्मवित् ॥ २० ॥
वे चिन्ता में पड़ गये कि मैं अपनी कन्या किसको दूँ, उसी समय देवर्षि नारद जी वहाँ आ पहुँचे ॥ २० ॥

नारदो मुनिशार्दूलः शैलपुत्री दिदृक्षया।
दत्वाऽर्घ्यविष्टरं पाद्यं नारदं प्रोक्तवान् गिरिः॥ २१॥
मुनिश्रेष्ठ नारद जी उस समय तुम्हें देखने गये थे, नारदजी को देखकर गिरि ने अर्घ्य-पाद्य, आसन आदि देकर उनकी पूजा की और कहा ॥ २१ ॥

हिमवानुवाच
किमर्थमागतः स्वामिन्! वदस्व मुनिसत्तम।
महाभागेन संप्राप्तः त्वदागमनमुत्तमम् ॥ २२ ॥
हिमवान ने कहा – हे स्वामिन्! आप किस लिए आये हैं। मेरा अहो भाग्य है, आपका आगमन मेरे लिए अच्छा है ॥ २२ ॥

नारद उवाच
शृणु शैलेन्द्र मद्वाक्यं विष्णुना प्रेषितोऽस्म्यहम् ।
योग्यं योग्याय दातव्यं कन्यारत्नमिदं त्वया ॥ २३ ॥
नारदजी ने कहा- हे पर्वतराज ! सुनो, मैं भगवान विष्णु का भेजा हुआ आपके पास आया हूँ। आपको चाहिए कि यह कन्यारत्न किसी योग्य वर को दें ॥ २३ ॥

वासुदेवसमो नास्ति ब्रह्मशक्रशिवादिषु।
तस्माद् देया त्वया कन्या अत्रार्थे सम्मतं मम ॥ २४ ॥

भगवान श्री हरि के समान योग्य वर ब्रह्मा जी, इन्द्र और शिव इनमें से कोई नहीं है। इसलिये मैं यही कहूँगा कि आप अपनी कन्या भगवान विष्णु को ही दें ॥ २४ ॥

हिमवानुवाच
वासुदेवः स्वयं देव कन्यां प्रार्थयते यदि ।
तदा मया प्रदातव्या त्वदागमनगौर- वात् ॥ २५ ॥
हिमवान् ने कहा- भगवान् विष्णु स्वयं मेरी कन्या ले रहे हैं और आप यह सन्देश लेकर आये हैं, तो मैं उन्हें अपनी कन्या दूँगा ॥ २५ ॥

इत्येवं कथितं श्रुत्वा नभस्यन्तर्दधे मुनिः।
ययौ पीताम्बरधरं शंखचक्रगदा-धरम् ॥ २६ ॥
हिमवान् की इतनी बात सुनकर मुनिराज नारद आकाश में विलीन हो गये। वे पीताम्बर, शङ्ख, चक्र और गदाधारी भगवान् विष्णु के पास पहुँचे ॥ २६ ॥

नारद उवाच-कृताञ्जलिपुटो भूत्वा मुनीन्द्रस्तमभाषत।
शृणु देव भवत्कार्यं विवाहो निश्चितस्तव ॥२७॥
 
वहाँ हाथ जोड़कर नारदजी ने भगवान् विष्णु से कहा- हे देव! सुनिये, मैंने अपना विवाह पक्का करा दिया ॥ २७॥ 

हिमवांस्तु ततो गौरीमुवाच वचनं मुदा ।
दत्तासि त्वं मया पुत्रि! देवाय गरुडध्वजे ॥ २८॥
उधर हिमवान् ने पार्वती के पास जाकर कहा कि हे पुत्री! मैंने तुम्हें भगवान विष्णु को दे दिया ॥ २८ ॥ 

श्रुत्वा वाक्यं पितुर्देवी गता च सखिमन्दिरम्।
भूमौ पतित्वा त्वं तत्र विललापातिदुःखिता॥ २९॥ 

तब पिता की बात सुनकर तुम बिना उत्तर दिये ही अपनी सखी के घर चली गयीं। वहीं जमीन पर पड़कर तुम बड़ी दुःखी होती हुई विलाप करने लगीं ॥ २९ ॥

सख्युवाच-विलपन्तीं तदा दृष्ट्वा सखी-वचनमब्रवीत्। 
किमर्थं दुःखिता देवि कथयस्व ममाग्रतः ॥ ३० ॥
तुमको इस तरह विलाप करते देख एक सखी ने पास आकर कहा- देवि, तुम क्यों इतनी दुःखी है, इसका कारण बताओ ॥ ३० ॥

यद्भवत्याभिलषितं करिष्येऽहं न संशयः।
पार्वत्युवाच-सखि शृणु मम प्रीत्या मनोऽभिलषितं मम ॥ ३१ ॥
महादेवं च भर्तारं करिष्येऽहं न संशयः।
एतन्मे चिन्तितं कार्यं तातेन कृतमन्यथा ॥ ३२ ॥
तुम्हारी जो कुछ इच्छा होगी मैं यथाशक्ति उसको पूरा करने की चेष्टा करूँगी, इसमें कोई संशय नहीं है। पार्वती बोलीं- मेरी जो कुछ अभिलाषा है उसे तुम प्रेमपूर्वक सुनो। मैं एकमात्र शिवजी को अपना पति बनाना चाहती हूँ, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। मेरे इस विचार को पिताजी ने ठुकरा दिया है ॥ ३१-३२ ॥


तस्माद् देहपरित्यागं करिष्येऽहं न संशयः।
पार्वत्या वचनं श्रुत्वा सखीवचनमब्रवीत् ॥ ३३ ॥
इससे मैं अपने शरीर को त्याग दूँगी। पार्वती की इस बात को सुन कर सखियों ने कहा ॥ ३३ ॥ 

सख्युवाच
पिता यत्र न जानाति गमिष्यामि हि तद्वनम् ।
इत्येवं सम्मतं कृत्वा नीतासि त्वं महद्वनम् ॥ ३४ ॥

शरीर का त्याग न करो, चलो किसी ऐसे वन को चलें जहाँ पिता को पता न लगे। ऐसी सलाह कर तुम वैसे वन में जा पहुँचीं ॥ ३४ ॥

पिता निरीक्षयामास हिमवांस्तु गृहे गृहे।
केन नीताऽस्ति मे पुत्री देवदानवकिन्नराः ॥ ३५ ॥
उधर तुम्हारे पिता घर-घर तुम्हें खोजने लगे। दूतों द्वारा भी समाचार लेने लगे कि कौन देवता या किन्नर मेरी पुत्री को हर ले गया है ॥ ३५ ॥

नारदाग्रे कृते सत्यं दास्ये च गरुडध्वजे ।
इत्येवं चिन्तयाविष्टो मूर्च्छितोऽपि गतापहः ॥ ३६ ॥
उन्होंने मन-ही-मन कहा- मैं नारद जी के आगे प्रतिज्ञा कर चुका हूँ कि अपनी पुत्री भगवान् विष्णु को दूँगा। ऐसा सोचते-सोचते हिमवान मूर्च्छित हो गये ॥ ३६ ॥

हाहा कृत्वा प्रधावन्तो लोकास्ते गिरिपुङ्गवम्।
ऊचुर्गिरिवरं सर्वे मूर्च्छाहितुं गिरे! वद ॥ ३७ ॥
गिरिराज को मूर्च्छित देखकर सब लोग हाहाकार करते दौड़ पड़े। जब होश हुआ तो सब पूछने लगे कि गिरिराज! आप अपनी मूर्च्छा का कारण बताइये ॥ ३७ ॥ 

दुःखस्य हेतुं शृणुत कन्यारत्नं हृतं मम।
दंष्ट्रा वा कालसर्पेण सिंहव्याघ्रेण वा हता ॥ ३८ ॥
हिमवान् ने कहा- आप लोग मेरे दुःख का कारण सुनें, न मालूम कौन मेरी कन्या को हर ले गया है। ऐसा नहीं हुआ तो उसे किसी काले साँप ने काट लिया या सिंह खा गये होंगे ॥ ३८ ॥

न जाने क्व गता पुत्री केन दुष्टेन वा हृता ।
चकम्पे शोकसन्तप्तो वातेनेव महातरुः ॥ ३९ ॥
हाय! हाय! मेरी बेटी कहाँ गयी? किसी दुष्ट ने मेरी पुत्री को मार डाला। ऐसा कह वे वायु के झोंके से काँपते हुए वृक्ष के समान काँपने लगे ॥ ३९॥

गिरिर्वनाद्वनं तातस्त्वदालोकनकारणात्।
सिंहव्याघ्रैश्च भल्लैश्च रोहिभिश्च महावनम् ॥ ४० ॥
इसके बाद हिमवान् तुम्हें वन-वन खोजने लगे। वह वन भी सिंह, भालू, हिंसक जन्तुओं से बड़ा भयानक हो रहा था ॥ ४० ॥

त्वं चापि विपिने घोरे व्रजन्ती सखिभिः सह।
तत्र दृष्ट्वा नदी रम्यां तत्तीरे च महागुहाम् ॥ ४१ ॥
तुम भी अपनी सखियों के साथ उस भयानक वन में चलतीं-चलतीं एक ऐसे स्थान जा पहुँची जहाँ एक नदी बह रही थी, उसके रमणीय तट पर एक बड़ी-सी कन्दरा थी ॥ ४१ ॥

तां प्रविश्य सखी सार्द्धमन्नभोगविवर्जिता । 
संस्थाप्य बालुकालिङ्गं पार्वत्या सहितं मम ॥ ४२॥
तुमने उसी कन्दरा में आश्रम बना लिया और मेरी एक बालुकामयी प्रतिमा बनाकर अपनी सखियों के साथ निराहार रहकर मेरी आराधना करने लगीं ॥ ४२ ॥

भाद्रशुक्ल तृतीयायां त्वमर्चन्ति तु हस्तभे ।
तत्र वाद्येन गीतेन रात्रौ जागरणं कृतम् ॥ ४३ ॥ 

व्रतराजप्रभावेण आसनं चलितं मम ।
संप्राप्तोऽहं तदा तत्र यत्र त्वं सखिभिः सह ॥ ४४ ॥

जब भाद्रपद शुक्ल पक्ष की हस्तयुक्त तृतीया तिथि प्राप्त हुई तब तुमने मेरा विधिवत पूजन किया और रात भर जागकर गीत-वाद्यादि से मुझे प्रसन्न करने में बिताया। उस व्रतराज के प्रभाव से मेरा आसन डगमगा उठा। जिससे मैं तत्काल उस स्थान पर जा पहुँचा, जहाँ पर तुम अपनी सखियों के साथ रहती थी ॥ ४३-४४ ॥

प्रसन्नोऽस्मि मया प्रोक्तं वरं ब्रूहि वरानने।
यदि देव प्रसन्नोऽसि भर्त्ता भव महेश्वर ॥ ४५ ॥ 

तथेत्युक्त्वा तु संप्राप्तः कैलासः पुनरेव च।
ततः प्रभाते प्रतिमां नद्यां कृत्वा विसर्जनम्॥ ४६ ॥

वहाँ पहुँचकर मैंने तुमसे कहा कि मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, बोलो क्या चाहती हो? तुमने कहा – मेरे देवता! यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं, तो मेरे पति बनें। मेरे ‘तथास्तु’ कहकर कैलास पर्वत पर वापस आने पर तुमने वह प्रतिमा नदी में प्रवाहित कर दी ॥ ४५-४६ ॥

पारणं तु कृतं तत्र सख्या सह त्वया शुभे।
हिमवानपि तं देशमाजगाम घनं वनम् ॥ ४७ ॥
और सखियों के साथ उस महाव्रत का पारण किया। हिमवान् भी तब तक उस वन में तुम्हें खोजते हुए आ पहुँचे ॥ ४७ ॥

चतुराशां निरीक्षस्तु विकलः पतितो भुवि।
दृष्ट्वा तत्र नदीतीरे प्रसुप्तं कन्यकाद्वयम्॥४८॥
चारों दिशाओं में तुम्हारी खोज करते-करते वे व्याकुल हो चुके थे। इसलिए तुम्हारे आश्रम के समीप पहुँचते ही गिर पड़े। थोड़ी देर बाद उन्होंने नदी के तट पर दो कन्यायें देखीं ॥ ४८ ॥

उत्थाप्योत्संगमारोप्य रोदनं कृतवान् गिरिः
सिंहव्याघ्रादिभिर्युक्तं किमर्थं वनमागता॥ ४९ ॥
देखते ही उन्होंने तुम्हें छाती से लगा लिया और विलख कर रोने लगे। फिर पूछा- पुत्री! तुम सिंह, व्याघ्र आदि जन्तुओं से भरे इस वन में क्यों आ पहुँची? ॥ ४९ ॥

पार्वत्युवाच
शृणु तात मया पूर्वं दत्ता स्वात्मा तु शंकरे।
तदन्यथा कृतं तात तेनाहं वनमागता ॥ ५० ॥

पार्वती ने उत्तर दिया- हे पिताजी, मैंने पहले ही अपने-आपको शिवजी के हाथों सौंप दिया था, आपने मेरी बात टाल दी इससे मैं यहाँ चली आयी ॥ ५० ॥

तथोत्युक्त्वा तु हिमवान् नीतासि त्वं गृहं प्रति।
यथाप्रयुक्तमस्माकं कृत्वां वैवाहिकीं क्रियाम् ॥ ५१ ॥ 

तेन व्रतप्रभावेण प्राप्तमर्द्धासनं प्रिये।
तदादि व्रतराजस्तु कस्याग्रे न न्यवेदयन् ॥५२॥

हिमवान् ने सान्त्वना दिया कि हे पुत्री! मैं तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध कुछ न करूँगा। तुम्हें अपने साथ ले घर आये और मेरे साथ तुम्हारा विवाह कर दिया। इसीसे तुमने मेरा अर्धासन पाया है। तब से आज तक किसी के सामने मुझे यह व्रत प्रकट करने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ।। ५१-५२॥

व्रतराजस्य नामेदं शृणु देवि यथा भवेत् । 
आलिभिर्हरिता यस्मात्तस्मात्सा हरितालिका ॥ ५३ ॥
हे देवि! मैं यह बताता हूँ कि इस व्रत का हरतालिका नाम क्यों पड़ा? तुमको सखियाँ हर ले गयी थीं, इसीसे हरितालिका नाम पड़ा ॥ ५३ ॥

पार्वत्युवाच
नामेदं कथितं नाथ विधिं वद मम प्रभो।
किं पुण्यं किं फलं चास्य केन वा क्रियते व्रतम् ॥ ५४॥

पार्वतीजी ने कहा- हे प्रभो! आपने नाम तो बताया, अब हरतालिका व्रत की विधि भी बतायें। इसका क्या पुण्य है, क्या फल है, यह व्रत कौन करे? ॥ ५४ ॥

ईश्वर उवाच
शृणु देवि विधिं वक्ष्ये नराणां व्रतमुत्तमम्।
कर्तव्यं तु प्रयत्नेन यदि सौभाग्यमिच्छति ॥ ५५ 

श्री शिव जी पार्वतीजी से कहते हैं- हे देवि! मैं स्त्री जाति की भलाई के लिए यह उत्तम व्रत बतला चुका हूँ। जो स्त्री अपने सौभाग्य की रक्षा करना चाहती हो वह यत्नपूर्वक इस व्रत को करे ॥ ५५ ॥

तोरणादि प्रकर्त्तव्यं कदलीस्तम्भमण्डितम्।
आच्छाद्य पटवस्त्रेण नानावर्णविचित्रितम्॥ ५६ ॥
पहले केले के खम्भे आदि से सुशोभित एक सुन्दर मण्डप बनावे। उसमें रंग-बिरंगे रेशमी कपड़ों से तोरण लगाकर ॥ ५६ ॥ 

चन्दनादि सुगन्धेन लेपयेद् गृहमण्डपम्।
शंखभेरीमृदङ्गांश्च वादयेत् बहुभिर्जनैः ॥ ५७ ॥
नानामङ्गलसञ्चारैः कर्तव्यं मम सद्मनि।
स्थापयेत्प्रतिमां तत्र पार्वत्या सहिता मम ॥ ५८ ॥

चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों से वह मण्डप लिपवावे, फिर शंख, भेरी, मृदंग आदि बजाते हुए बहुत से लोग एकत्रित होकर तरह-तरह के मङ्गलाचार कहते हुए उस मण्डप में पार्वतीजी तथा शिवजी की प्रतिमा स्थापित करें ॥ ५७-५८ ॥ 

पूजयेद् बहुभिः पुष्पैर्गन्धैर्धूपैर्मनोहरैः।
नानाप्रकारैर्नैवैद्यैरुपोष्य जागरणं निशि ॥ ५९ ॥
उस रोज दिन भर उपवास कर बहुत से सुगन्धित फूल, गन्ध और मनोहर धूप, नाना प्रकार के नैवेद्य आदि एकत्र कर मेरी पूजा करें और रात भर जागरण करें॥५९॥

नारिकेलैः पुङ्गफलैर्जम्बीरैः सलवङ्गकैः ।
बीजपूरैस्तु नारंगैः फलैरन्यैर्विशेषतः ॥ ६० ॥

ऊपर जो वस्तुएँ गिनाई गई हैं उनके अतिरिक्त नारियल, सुपारी, जमीरी नीबू, लौंग, अनार, नारंगी आदि जो-जो फल प्राप्त हो सकें उन्हें इकट्ठा कर लें ॥ ६० ॥

ऋतुदेशोद्भवैश्चैव फलैश्च कुसुमैरपि। 
धूपदीपादिभिश्चैव मन्त्रेणानेन पूजयेत् ॥ ६१ ॥
उस ऋतु में जो फल तथा फूल मिल सके विशेष रूप से रखें। इसके बाद धूप, दीपादि से पूजन कर प्रार्थना करें ॥ ६१ ॥ 

शिवायै शिवरूपिण्यै मङ्गलायै महेश्वरी।
शिवे सर्वार्थदे देवि शिवरूपे नमोऽस्तु ते ॥ ६२ ॥
हे शिवे! शिवरूपिणि, हे मंगले! सब अर्थों को देने वाली हे देवि! हे शिवरूपे! आपको नमस्कार है ॥ ६२ ॥ 

शिवरूपे नमस्तुभ्यं शिवायै सततं नमः।
नमस्ते ब्रह्मरूपिण्ये जगद्धात्र्यै नमो नमः ॥ ६३ ॥
हे शिवरूपे! आपको सदा के लिए नमस्कार है, हे ब्रह्मरूपिणि! आपको नमस्कार है, हे जगद्धात्री! आपको नमस्कार है ॥ ६३ ॥

संसार-भय-संत्रस्तस्त्राहि मां सिंहवाहिनि।
येन कामेन भो देवि पूजितासि महेश्वरी ॥ ६४ ॥
हे सिंहवाहिनी! संसार के भय से भयभीत मुझ दीन की रक्षा करो। इस कामना की पूर्ति के लिये मैंने आपकी पूजा की है ॥ ६४ ॥ 

राज्यसौभाग्यं मे देहि प्रसन्ना भव पार्वती ।
मन्त्रेणानेन भो देवि पूजयेदुमया सह ॥ ६५ ॥
हे पार्वती! मुझे राज्य और सौभाग्य दें, मुझ पर प्रसन्न हों। इन्हीं मन्त्रों से पार्वती जी तथा शिव जी की पूजा करें ॥ ६५ ॥

कथां श्रुत्वा विधानेन दद्याद्वस्त्रादिकं तथा ।
ब्राह्मणाय प्रदातव्यं वस्त्रधेनुहिरण्यकम्॥ ६६ ॥
तदनन्तर विधिपूर्वक हरतालिका तीज व्रत कथा सुनें और ब्राह्मण को वस्त्र, गौ, सुवर्ण आदि दें ॥ ६६ ॥

कृत्वैवं चैकचित्तेन दम्पतीभ्यां सहैव तु ।
सङ्कल्पस्तु ततः कुर्याद्वस्त्ररत्नादिकं च यत् ॥ ६७ ॥
इस तरह एकचित्त होकर स्त्री-पुरुष दोनों एक साथ पूजन करें। फिर वस्त्र आदि जो कुछ हो उसका संकल्प करें ॥ ६७ ॥

एवं या कुरुते देवि! सर्वपापैः प्रमुच्यते।
सप्तजन्म भवेद्राज्यं सौभाग्यसुखदायकम् ॥ ६८ ॥
हे देवि! जो स्त्री इस प्रकार पूजन करती है वह सब पापों से छूट जाती है और उसे सात जन्म तक सुख तथा सौभाग्य प्राप्त होता है ॥ ६८ ॥ 

तृतीयायां तु या नारी अन्नाहारं समाचरेत्।
सप्तजन्म भवेद्वन्ध्या वैधव्यं च पुनः पुनः ॥ ६९ ॥
जो स्त्री तृतीया तिथि का व्रत न कर अन्न भक्षण करती है, तो वह सात जन्म तक बन्ध्या रहती है और उसको बार-बार विधवा होना पड़ता है ॥ ६९ ॥

दारिद्र्यं पुत्रशोकं च कर्कशा दुःखभागिनी ।
सा पतिता नरके घोरे नोपवासं करोति या ॥ ७० ॥
वह सदा दरिद्री, पुत्र-शोक से शोकाकुल, स्वभाव की लड़ाकी, सदा दुःख भोगने वाली होती है और उपवास न करने वाली स्त्री अन्त में घोर नरक में जाती है ॥ ७० ॥ 

अन्नाहारात् सूकरी स्यात्फलभक्षेण मर्कटी।
जलौका जलपानेन क्षीरा हारेण सर्पिणी ॥ ७१ ॥ 

मांसाहाराद्भवेद् व्याघ्री मार्जारी दधिभक्षणात्।
मिष्ठान्नात् पिपीलिका जन्म मक्षिका सर्वभक्षणात् ॥७२॥
तीज को अन्न खाने से सूकरी, फल खाने से बंदरिया, पानी पीने से जोंक, दूध पीने से साँपिन, मांसाहार करने से बाघिन, दही खाने से बिल्ली, मिठाई खाने से चींटी और सब खाने से मक्खी होती है ॥ ७१-७२ ॥

निद्रावशेनाजगरी कुक्कुटी पतिवञ्चनात्।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन व्रतं कुर्युः सदा स्त्रियः॥७३॥
उस रोज सोने से अजगरी और पति को धोखा देने से मुर्गी होती है, इसलिए हर स्त्रियाँ व्रत अवश्य करें ॥ ७३ ॥

काञ्चनं राजतं ताम्रं यथा वंशस्य भाजनम्।
दापयेदन्नं विप्राय पारणं तदनन्तरम्॥७४॥
दूसरे दिन सुवर्ण, चाँदी, ताँबा अथवा बाँस के पात्र में अन्न भरकर ब्राह्मण को दान दें और पारण करें ॥ ७४ ॥ 

एवं विधिं या कुरुते च नारी, मया निभं सा लभते च स्वामिनम्।
विनाशकाले तव तुल्यरूपं, सायुज्यभुक्तिं लभते च मुक्तिम्॥७५॥
जो स्त्री इस प्रकार व्रत करती है, वह मेरे समान पति पाती है और जब वह मरने लगती है, तो तुम्हारे समान उसका रूप हो जाता है। उसे सब प्रकार के सांसारिक भोग और सायुज्य मुक्ति मिल जाती है ॥ ७५ ॥

अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च।
कथाश्रवणमात्रेण तत्फलं प्राप्यते नरः ॥ ७६ ॥
इस हरतालिका तीज व्रत कथा मात्र सुन लेने से प्राणी को एक हजार अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है ॥ ७६ ॥ 

एतत्ते कथितं देवि! व्रतानां व्रतमुत्तमम्।
यत्कृत्वा सर्वपापेभ्यो मुच्यते नाऽत्र संशयः ॥ ७७ ॥
हे देवि, मैंने यह सब व्रतों में उत्तम व्रत बतलाया, जिसके करने से प्राणी सब पापों से छूट जाता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं ॥ ७७ ॥ 

॥ हरतालिका व्रत कथा समाप्त ॥

हरतालिका तीज कथा सार हिंदी में

यह हरतालिका व्रत कथा शिवजी ने ही मां पार्वती को सुनाई थी। शिव भगवान ने इस कथा में मां पार्वती को उनका पिछला जन्म याद दिलाया था।

‘हे गौरा, पिछले जन्म में तुमने मुझे पाने के लिए बहुत छोटी उम्र में क‍ठोर तप और घोर तपस्या की थी। तुमने ना तो कुछ खाया और ना ही पीया बस हवा और सूखे पत्ते चबाए। जला देने वाली गर्मी हो या कंपा देने वाली ठंड तुम नहीं हटीं। डटी रहीं। बारिश में भी तुमने जल नहीं पिया। तुम्हें इस हालत में देखकर तुम्हारे पिता दु:खी थे। उनको दु:खी देख कर नारदमुनि आए और कहा कि मैं भगवान् विष्णु के भेजने पर यहां आया हूं। वह आपकी कन्या की से विवाह करना चाहते हैं। इस बारे में मैं आपकी राय जानना चाहता हूं।

’नारदजी की बात सुनकर आपके पिता बोले अगर भगवान विष्णु यह चाहते हैं तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं।

परंतु जब तुम्हें इस विवाह के बारे में पता चला तो तुम दुःखी हो गईं। तुम्हारी एक सहेली ने तुम्हारे दुःख का कारण पूछा तो तुमने कहा कि मैंने सच्चे मन से भगवान् शिव का वरण किया है, किन्तु मेरे पिता ने मेरा विवाह विष्णुजी के साथ तय कर दिया है। मैं विचित्र धर्मसंकट में हूं। अब मेरे पास प्राण त्याग देने के अलावा कोई और उपाय नहीं बचा।

तुम्हारी सखी बहुत ही समझदार थी। उसने कहा-प्राण छोड़ने का यहां कारण ही क्या है? संकट के समय धैर्य से काम लेना चाहिए। नारी के जीवन की सार्थकता इसी में है कि जिसे मन से पति रूप में एक बार वरण कर लिया, जीवनपर्यन्त उसी से निर्वाह करें। मैं तुम्हें घनघोर वन में ले चलती हूं जो साधना स्थल भी है और जहां तुम्हारे पिता तुम्हें खोज भी नहीं पाएंगे। मुझे पूर्ण विश्वास है कि ईश्वर अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेंगे

तुमने ऐसा ही किया। तुम्हारे पिता तुम्हें घर में न पाकर बड़े चिंतित और दुःखी हुए। इधर तुम्हारी खोज होती रही उधर तुम अपनी सहेली के साथ नदी के तट पर एक गुफा में मेरी आराधना में लीन रहने लगीं। तुमने रेत के शिवलिंग का निर्माण किया। तुम्हारी इस कठोर तपस्या के प्रभाव से मेरा आसन हिल उठा और मैं शीघ्र ही तुम्हारे पास पहुंचा और तुमसे वर मांगने को कहा तब अपनी तपस्या के फलीभूत मुझे अपने समक्ष पाकर तुमने कहा, ‘मैं आपको सच्चे मन से पति के रूप में वरण कर चुकी हूं। यदि आप सचमुच मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर यहां पधारे हैं तो मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लीजिए। तब ‘तथास्तु’ कहकर मैं कैलाश पर्वत पर लौट गया।

उसी समय गिरिराज अपने बंधु-बांधवों के साथ तुम्हें खोजते हुए वहां पहुंचे। तुमने सारा वृतांत बताया और कहा कि मैं घर तभी जाउंगी अगर आप महादेव से मेरा विवाह करेंगे। तुम्हारे पिता मान गए औऱ उन्होने हमारा विवाह करवाया। इस व्रत का महत्व यह है कि मैं इस व्रत को पूर्ण निष्ठा से करने वाली प्रत्येक स्त्री को मनवांछित फल देता हूं। इस पूरे प्रकरण में तुम्हारी सखी ने तुम्हारा हरण किया था इसलिए इस व्रत का नाम हरतालिका व्रत हो गया।

इस व्रत से जुड़ी एक मान्यता यह है कि इस व्रत को करने वाली स्त्रियां पार्वती जी के समान ही सुखपूर्वक पतिरमण करके शिवलोक को जाती हैं।

हरतालिका तीज,Hartalika Teej 2023
हरतालिका तीज

हरतालिका तीज व्रत पूजा विधि

  • हरतालिका पूजन प्रदोष काल में किया जाता हैं। प्रदोष काल अर्थात दिन रात के मिलने का समय होता है।
  • हरतालिका पूजन के लिए शिव, पार्वती एवं गणेश जी की प्रतिमा बालू रेत अथवा काली मिट्टी से हाथों से बनाई जाती है।
  • फुलेरा बनाकर उसे सजाया जाता है। उसके भीतर रंगोली डालकर उस पर पटा अथवा चौकी रखी जाती है।
  • चौकी पर एक सातिया बनाकर उस पर थाल रखते है। उस थाल में केले के पत्ते को रखते है।
  • तीनो मूर्तियों को केले के पत्ते पर आसान दिया जाता हैं। सर्वप्रथम कलश बनाया जाता हैं जिसमे एक लौटा अथवा घड़ा लेते हैं। उसके उपर श्रीफल रखते हैं, अथवा एक दीपक जलाकर रखते हैं, घड़े के मुंह पर लाल धागा बाँधते हैं। घड़े पर सातिया बनाकर उर पर अक्षत चढ़ाया जाता है।
  • कलश का पूजन किया जाता है। सबसे पहले जल चढ़ाते हैं, लाल धागा बाँधते है। कुमकुम, हल्दी चावल चढ़ाते हैं फिर पुष्प चढ़ाते हैं। उसके बाद शिव जी की पूजा जी जाती हैं।
  • कलश के बाद गणेश जी की पूजा की जाती है। इसके बाद कलश और गौरा-पार्वती की क्रमानुुसार पुष्प, शमीपत्र, बेलपत्र, रोली, चंदन, मौली आदि चढ़ाकर पूजा करें. पूजा में शंकर और पार्वती को पांच फूल से बना फुलेरा और माता पार्वती को सुहाग से जुड़ी वस्तुएं जरूर चढ़ाएं.
  • इसके बाद हरतालिका की कथा पढ़ी जाती है। फिर सभी मिलकर आरती की जाती हैं जिसमे सर्प्रथम गणेश जी कि आरती फिर शिव जी की आरती फिर माता गौरी की आरती की जाती है। माता पार्वती की उपासना के समय ‘ॐ उमायै नमःमंत्र का जाप करें और भगवान शिव की उपासना के समय ‘ॐ नमः शिवाय‘ मंत्र का निरंतर जाप करते रहें।
  • पूजा के बाद भगवान की परिक्रमा की जाती है। रात भर जागकर पांच पूजा एवं आरती की जाती है।
  • सुबह आखरी पूजा के बाद माता पार्वति को जो सिंदूर चढ़ाया जाता है। उस सिंदूर से सुहागन स्त्री सुहाग लेती है।
  • ककड़ी एवं हलवे का भोग लगाया जाता है। उसी ककड़ी को खाकर उपवास तोडा जाता है।
  • अगले दिन स्नान-ध्यान करने के बाद गौरा-पार्वती की पूजा करने के बाद उनकी मूर्ति का किसी पवित्र जल जल में विसर्जन करने के बाद व्रत का पारण करें. सामग्री को एकत्र कर पवित्र नदी एवं कुण्ड में विसर्जित किया जाता हैं .

निष्कर्ष

अंत में, हरतालिका तीज एक खूबसूरत हिंदू त्योहार है जो प्यार, दोस्ती और वैवाहिक आनंद का जश्न मनाता है। यह एक ऐसा दिन है जब महिलाएं अपने जीवन में दोस्ती और विवाह के बंधन को मजबूत करते हुए देवी पार्वती और भगवान शिव के बीच के दिव्य बंधन का सम्मान करने के लिए एक साथ आती हैं।


FAQ

  1. Q.1 हरतालिका तीज कब मनाई जाती है?

    हरतालिका तीज हिंदू माह भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाई जाती है।

  2. Q.2 हरतालिका तीज के व्रत का क्या महत्व है?

    हरतालिका तीज के दौरान उपवास करना विवाहित महिलाओं के अपने पति के प्रति समर्पण और प्रेम का प्रतीक है और माना जाता है कि यह उनके विवाहित जीवन में समृद्धि लाता है।

  3. Q.3 इस त्यौहार के दौरान झूले की सजावट एक महत्वपूर्ण परंपरा क्यों है?

    हरतालिका तीज के दौरान झूले सजाए जाते हैं जो इस अवसर से जुड़े आनंद और उत्सव के साथ-साथ भगवान कृष्ण और राधा की चंचल प्रकृति का प्रतीक हैं।

  4. Q.4 हरतालिका तीज उत्सव के दौरान महिलाओं की पारंपरिक पोशाक क्या है?

    महिलाएं आमतौर पर हरे रंग की पारंपरिक पोशाक पहनती हैं, जो त्योहार के लिए शुभ माना जाता है।

  5. Q.5 हरतालिका तीज समारोह में पुरुष कैसे भाग लेते हैं?

    जबकि त्योहार मुख्य रूप से महिलाओं द्वारा मनाया जाता है, पुरुष अक्सर विभिन्न अनुष्ठानों और समारोहों में अपनी पत्नियों और परिवार के सदस्यों का समर्थन करके उत्सव में शामिल होते हैं।