शरणागत रक्षा सनातन धर्म श्लोक अर्थ सहित

यो हि कश्चिद् द्विजान् हन्याद्गां, वा लोकस्य मातरम् ।
शरणागतं च त्यजते,तुल्यं तेषां हि पातकम् ॥
(महा० वन० १३१ । ६)

जो कोई भी मनुष्य ब्राह्मणों की अथवा लोक माता गौ की हत्या करता है और जो शरण में आये हुए दीन प्राणी को त्याग देता है उसकी रक्षा नहीं करता; इन सबको एक-सा पाप लगता है।

नास्य वर्ष वर्षन्ति वर्षकाले,नास्य बीजं रोहति काल उप्तम् ।
भीतं प्रपन्नं यो हि ददाति शत्रवे,न त्राणं लभते त्राणमिच्छन् स काले॥

जो मनुष्य अपनी शरण में आये हुए भयभीत प्राणी को उसके शत्रु के हाथ में सौंप देता है, उसके देश में वर्षा काल में वर्षा नहीं होती, उसके बोये हुए बीज नहीं उगते और कभी संकट के समय वह जब अपनी रक्षा चाहता है, तब उसकी रक्षा नहीं होती।

जाता ह्रस्वा प्रजा प्रमीयते सदा,न वै वासं पितरोऽस्य कुर्वते ।
भीतं प्रपन्नं यो हि ददाति शत्रवे ,नास्य देवाः प्रतिगृह्णन्ति हव्यम् ॥

उसकी संतान बचपन में ही मर जाती है, उसके पितरों को पितृ लोक में रहनेको स्थान नहीं मिलता। ( वे स्वर्ग में जाने पर नरकों में ढकेल दिये जाते हैं ) और देवता उसके हाथ का हव्य ग्रहण नहीं करते।

मोघमन्नं विदन्ति वाप्रचेताः,स्वर्गाल्लोकाद्मश्यति शीघ्रमेव ।
भीतं प्रपन्नं यो हि ददाति शत्रवे,सेन्द्रा देवाः प्रहरन्त्यस्य वज्रम् ॥
( महा० वन० १९७ । १२-१४ )


उसका अन्न निष्फल होता है, वह स्वर्गसे तुरंत ही नीचे गिर पड़ता है और इन्द्र आदि देवता उसपर वज्रका प्रहार करते हैं ।


शरणागत रक्षा सनातन धर्म श्लोक अर्थ सहित
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