10 भारत के प्रसिद्द मंदिर
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पद्मनाभ स्वामी मंदिर त्रिवेंद्रम
पद्मनाभ स्वामी मंदिर भारत का सबसे अमीर मंदिर है।
यह तिरुवनंतपुरम् (त्रिवेंद्रम) शहर के बीच स्थित है। इस मंदिर की देखभाल त्रावणकोर के पूर्व शाही परिवार द्वारा की जाती है।
यह मंदिर बहुत प्राचीन है और द्रविड़ शैली में बनाया गया है।
मंदिर की कुल एक लाख करोड़ की संपत्ति है।
मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु की विशाल मूर्ति विराजमान है जिसे देखने के लिए हजारों भक्त दूर दूर से यहां आते हैं।

इस प्रतिमा में भगवान विष्णु शेषनाग पर शयन मुद्रा में विराजमान हैं।
मान्यता है कि तिरुअनंतपुरम नाम भगवान के अनंत नामक नाग के नाम पर ही रखा गया है।
यहां पर भगवान विष्णु की विश्राम अवस्था को पद्मनाभ कहा जाता है और इस रूप में विराजित भगवान पद्मनाभ स्वामी के नाम से विख्यात हैं।
केरल में तिरुवनंतपुरम पद्मनाभ स्वामी मंदिर दुनिया के कुछ सबसे रहस्यमय जगहों में एक है।
ये रहस्य है एक दरवाजे का, जिसे आज तक कोई खोल नहीं सका।
दरवाजा खोल सके, ऐसा कोई सिद्ध पुरुष नहीं है पूरी दुनिया में
माना जाता है कि उसे केवल कोई सिद्धपुरुष ही खोल सकता है, लेकिन आज की तारीख में जो इसे खोल सके ऐसा कोई सिद्ध पुरुष पूरी धरती पर नहीं है।
यह भी माना जाता है कि ये दरवाजा भगवान तक जाता है।
आखिर क्या है इस दरवाजे का रहस्य? क्या सचमुच इसके पीछे भगवान तक पहुंचने की रास्ता है?
2 लाख करोड़ का सोना इस मंदिर के गर्भ-गृह खजाने में 2 लाख करोड़ का सोना है, पर इतिहासकारों के अनुसार वास्तविकता में इसकी ये अनुमानित राशि इससे कहीं दस गुना ज्यादा होगी।
इस खजाने में सोने-चांदी के महंगे चेन, हीरा, पन्ना, रूबी, दूसरे कीमती पत्थर, सोने की मूर्तियां, रूबी जैसी कई बेशकीमती चीजें हैं जिनकी असली कीमत आंकना बेहद मुश्किल है।
कलियुग के पहले दिन मंदिर की हुई थी स्थापना -मंदिर में पद्मनाभ स्वामी की मूर्ति की स्थापना कब और किसने की, इसकी कहीं कोई ठोस जानकारी नहीं है।
त्रावनकोर के इतिहासकार डॉ एल. ए. रवि वर्मा के अनुसार ये रहस्यमय मंदिर 5000 साल पहले कलियुग के पहले दिन स्थापित हुआ था।
भगवान विष्णु को समर्पित मंदिर -भगवान विष्णु को समर्पित इस मंदिर में सिर्फ हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले ही जा सकते हैं और यहां प्रवेश के लिए एक खास वस्त्र (ड्रेस कोड) धारण करना भी ज़रूरी है।
ये दुनिया का सबसे धनी हिंदू मंदिर है जिसमें बेशकीमती हीरे-जवाहरात जड़े हैं।
शापित दरवाजा -कुछ अन्य कहानियों के अनुसार 6वीं सदी में त्रावनकोर के महाराज ने इस मंदिर का निर्माण कराया था और अपने बेशकीमती खजाने को मंदिर के तहखाने में और मोटी दीवारों के पीछे छुपाया था।
कई सौ सालों तक किसी ने इसके दरवाजे खोलने की हिमाकत नहीं की। बाद में इसे शापित माना जाने लगा।
तहखाने – मंदिर में 6 तहखाने हैं, जो शापित माने जाते हैं खासकर मंदिर का 7वां द्वार। कथाओं के अनुसार एक बार खजाने की खोज करते हुए किसी ने इसे खोलने की कोशिश की थी, लेकिन उसके अंदर से जहरीले सांप निकलने लगे और सभी मौत को प्यारे हुए।
सातवां दरवाजा खोलने की कोशिश ला सकता है प्रलय – माना जाता है तहखाना बी जो इस मंदिर का सातवां द्वार भी कहा जाता है, सिर्फ कुछ मंत्रों के उच्चारण से ही खोला जा सकता है।
किसी भी आधुनिक मानव-निर्मित तकनीक या दूसरे मानव-प्रयासों से खोलने या ऐसा करने की कोशिश की दिशा में मंदिर नष्ट हो सकता है और ये प्रलयकारी भी सिद्ध हो सकता है।
माना जाता है जहरीले सांपों का बसेरा – दरवाजे के पीछे के खजाने का पता लगाना भले ही मुश्किल हो, लेकिन इसके पीछे से पानी की आवाजें आती हैं।
माना जाता है कि ये आवाजें सापों के सरसराने की हैं। शायद बहते हुए पानी में यहां बेहद जहरीले सांपों का निवास हो।
20 फुट की खुदाई में मिला बेशकीमती खजानों का राज -2011 में इसका कोर्ट के आदेश पर मंदिर ट्रस्टी को शामिल करते हुए इसे खोलने के लिए 7 लोगों की कमिटी बनाई गई।
कागजी कार्रवाई में आसानी के लिए सभी तखखानों को ए, बी, सी, डी, ई और एफ नाम दिया गया। लोहे के दरवाजों के बाद एक और भारी लकड़ी का दरवाजा खोलते हुए जमीन के अंदर 20 फुट की खुदाई कर बाकी तहखाने तो खुल गए, लेकिन बी चैंबर नहीं खुल सका।
1,32,000 करोड़ के सोने और हीरे – हालांकि खोले गए तहखानों से 1,32,000 करोड़ के सोने और हीरे जैसे कीमती रत्नों के जड़ाऊ गहने, हाथी की मूर्तियां, बंदूकें आदि निकलीं।
चौंकाने वाली बात ये थी कि यहां 28 किलोग्राम का एक बैग ऐसा भी था जिसमें 7 अलग-अलग देशों के राष्ट्रीय सिक्के थे, जिसमें नेपोलियन के समय के और इटालियन सिक्के भी थे।
नहीं खुला चैंबर-बी का दरवाजा – तमाम कोशिशों के बावजूद इसका चैंबर-बी दरवाजा खोला नहीं जा सका।
हाईकोर्ट की आदेश पर इसे खोलने गए इतिहासकार और न्यायाधीश के अनुसार इस पुरानी तकनीक के ताले को खोलना बेहद मुश्किल है और वो इसे तोड़ना नहीं चाहते।
बल-प्रयोग से खोलना हो सकता है विनाशकारी -चैंबर बी का ये दरवाजा स्टील का बना है जिसके द्वार पर दो बड़े कोबरा सांपों की आकृति उकेरी हुई है।
इसमें कोई नट-बोल्ट या कब्जा नहीं हैं।
कौन सुलझेगा ये अबूझ पहेली? – माना जाता है कि इसे किसी सिद्ध पुरुष ने ‘नाग बंधम’ या ‘नाग पाशम’ मंत्रों का प्रयोग कर बंद किया है।
इसलिए उतनी सिद्धियों के साथ ही इसे केवल ‘गरुड़ मंत्र’ का मंत्रोच्चार करते हुए ही खोला जा सकता है, वरना तकनीक या बल-प्रयोग से इसे खोलना विनाशकारी सिद्ध हो सकता है।
दुनिया के किसी कोने में नहीं है ये खोल सकने वाला सिद्ध पुरुष -फिलहाल भारत या दुनिया के किसी भी कोने में ऐसा सिद्ध पुरुष नहीं है।
वैदिक साधना करने वाले कई साधुओं ने इसे खोलने की कोशिश की, लेकिन इसे खोल नहीं सके।
इसलिए अभी तक इस मंदिर के चैंबर-बी का ये दरवाजा सबके लिए एक रहस्य बना हुआ है।
इसके अंदर कितना भी बड़ा खजाना हो, या ना हो, लेकिन इतना जरूर कि ये दरवाजा भी स्वयं में ही में किसी अबूझ पहेली से कम नहीं है।
तिरूपति बालाजी का मंदिर आंध्रप्रदेश
तिरूपति बालाजी का मंदिर आंध्रप्रदेश के चित्तूर जिले में स्थित है। यह मंदिर वास्तुकला का अद्भुत नमूना है।
मंदिर सात पहाड़ों से मिलकर बने तिरूमाला के पहाड़ों पर स्थित है, कहते हैं कि तिरूमाला की पहाड़ियां विश्व की दूसरी सबसे प्राचीन पहाड़ियां है।
इस तिरूपति मंदिर में भगवान वेंकटश्वर निवास करते है। भगवान वेंकटश्वर को विष्णुजी का अवतार माना जाता है।
यह मंदिर समुद्र तल से 2800 फिट की ऊंचाई पर स्थित है। इस मंदिर को तमिल राजा थोडईमाननें ने बनवाया था।
इस मंदिर में लगभग 50,000 श्रृद्धालु रोज दर्शन करने आते हैं। मंदिर की कुलसंपत्ति लगभग 50,000 करोड़ है।
देश के प्रमुख धार्मिक स्थलों में तिरुपति बालाजी मंदिर अत्यंत प्रसिद्ध है।
कई बड़े उद्योगपति, फिल्म सितारे और राजनेता यहां अपनी उपस्थिति देते हैं क्योंकि उनके चमत्कारों की कई कथाएं प्रचलित हैं।
आइए जानें उनके 11 आश्चर्यजनक चमत्कार

1. मुख्यद्वार के दाएं और बालाजी के सिर पर अनंताळवारजी के द्वारा मारे गए निशान हैं।
बालरूप में बालाजी को ठोड़ी से रक्त आया था, उसी समय से बालाजी के ठोड़ी पर चंदन लगाने की प्रथा शुरू हुई।
2. भगवान बालाजी के सिर पर आज भी रेशमी बाल हैं और उनमें उलझने नहीं आती और वह हमेशा ताजा लगते है।
3. मंदिर से 23 किलोमीटर दूर एक गांव है, उस गांव में बाहरी व्यक्ति का प्रवेश निषेध है।
वहां पर लोग नियम से रहते हैं। वहां की महिलाएं ब्लाउज
नहीं पहनती। वहीं से लाए गए फूल भगवान को चढ़ाए जाते हैं और वहीं की ही अन्य वस्तुओं को चढाया जाता है जैसे- दूध, घी, माखन आदि।
4. भगवान बालाजी गर्भगृह के मध्य भाग में खड़े दिखते हैं मगर वे दाई तरफ के कोने में खड़े हैं बाहर से देखने पर ऎसा लगता है।
5. बालाजी को प्रतिदिन नीचे धोती और उपर साड़ी से सजाया जाता है।
6. गृभगृह में चढ़ाई गई किसी वस्तु को बाहर नहीं लाया जाता, बालाजी के पीछे एक जलकुंड है उन्हें वहीं पीछे देखे बिना उनका विसर्जन किया जाता है।
7. बालाजी की पीठ को जितनी बार भी साफ करो, वहां गीलापन रहता ही है, वहां पर कान लगाने पर समुद्र घोष सुनाई देता है।
8. बालाजी के वक्षस्थल पर लक्ष्मीजी निवास करती हैं।
हर गुरुवार को निजरूप दर्शन के समय भगवान बालाजी की चंदन से सजावट की जाती है उस
चंदन को निकालने पर लक्ष्मीजी की छबि उस पर उतर आती है। बाद में उसे बेचा जाता है।
9. बालाजी के जलकुंड में विसर्जित वस्तुए तिरूपति से 20 किलोमीटर दूर वेरपेडु में बाहर आती हैं।
10. गर्भगृह मे जलने वाले चिराग कभी बुझते नही हैं, वे कितने ही हजार सालों से जल रहे हैं किसी को पता भी नही है।
11. बताया जाता है सन् 1800 में मंदिर परिसर को 12 साल के लिए बंद किया गया था।
किसी एक राजा ने 12 लोगों को मारकर दीवार पर लटकाया था उस समय विमान में वेंकटेश्वर प्रकट हुए थे ऎसा माना जाता है।
श्री जगन्नाथ मंदिर पुरी
पुरी का श्री जगन्नाथ मंदिर एक हिन्दू मंदिर है, जो भगवान जगन्नाथ (श्रीकृष्ण) को समर्पित है।
यह भारत के उड़ीसा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत के स्वामी होता है।
इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाती है

।।ॐ नमोः नारायणाय। ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय।।
माना जाता है कि भगवान विष्णु जब चारों धामों पर बसे अपने धामों की यात्रा पर जाते हैं तो हिमालय की ऊंची चोटियों पर बने अपने धाम बद्रीनाथ में स्नान करते हैं।
पश्चिम में गुजरात के द्वारिका में वस्त्र पहनते हैं। पुरी में भोजन करते हैं और दक्षिण में रामेश्वरम में विश्राम करते हैं।
द्वापर के बाद भगवान कृष्ण पुरी में निवास करने लगे और बन गए जग के नाथ अर्थात जगन्नाथ।
पुरी का जगन्नाथ धाम चार धामों में से एक है। यहां भगवान जगन्नाथ बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विराजते हैं।
हिन्दुओं की प्राचीन और पवित्र 7 नगरियों में पुरी उड़ीसा राज्य के समुद्री तट पर बसा है।
जगन्नाथ मंदिर विष्णु के 8वें अवतार श्रीकृष्ण को समर्पित है।
भारत के पूर्व में बंगाल की खाड़ी के पूर्वी छोर पर बसी पवित्र नगरी पुरी उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर से थोड़ी दूरी पर है।
आज का उड़ीसा प्राचीनकाल में उत्कल प्रदेश के नाम से जाना जाता था। यहां देश की समृद्ध बंदरगाहें थीं, जहां जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया, थाईलैंड और अन्य कई देशों का इन्हीं बंदरगाह के रास्ते व्यापार होता था।
पुराणों में इसे धरती का वैकुंठ कहा गया है। यह भगवान विष्णु के चार धामों में से एक है।
इसे श्रीक्षेत्र, श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र, शाक क्षेत्र, नीलांचल, नीलगिरि और श्री जगन्नाथ पुरी भी कहते हैं।
यहां लक्ष्मीपति विष्णु ने तरह-तरह की लीलाएं की थीं।
ब्रह्म और स्कंद पुराण के अनुसार यहां भगवान विष्णु पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतरित हुए और सबर जनजाति के परम पूज्य देवता बन गए।
सबर जनजाति के देवता होने के कारण यहां भगवान जगन्नाथ का रूप कबीलाई देवताओं की तरह है।
पहले कबीले के लोग अपने देवताओं की मूर्तियों को काष्ठ से बनाते थे। जगन्नाथ मंदिर में सबर जनजाति के पुजारियों के अलावा ब्राह्मण पुजारी भी हैं।
ज्येष्ठ पूर्णिमा से आषाढ़ पूर्णिमा तक सबर जाति के दैतापति जगन्नाथजी की सारी रीतियां करते हैं।
पुराण के अनुसार नीलगिरि में पुरुषोत्तम हरि की पूजा की जाती है। पुरुषोत्तम हरि को यहां भगवान राम का रूप माना गया है।
सबसे प्राचीन मत्स्य पुराण में लिखा है कि पुरुषोत्तम क्षेत्र की देवी विमला है और यहां उनकी पूजा होती है।
रामायण के उत्तराखंड के अनुसार भगवान राम ने रावण के भाई विभीषण को अपने इक्ष्वाकु वंश के कुल देवता भगवान जगन्नाथ की आराधना करने को कहा।
आज भी पुरी के श्री मंदिर में विभीषण वंदापना की परंपरा कायम है।
स्कंद पुराण में पुरी धाम का भौगोलिक वर्णन मिलता है।
स्कंद पुराण के अनुसार पुरी एक दक्षिणवर्ती शंख की तरह है और यह 5 कोस यानी 16 किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। माना जाता है कि इसका लगभग 2 कोस क्षेत्र बंगाल की खाड़ी में डूब चुका है।
इसका उदर है समुद्र की सुनहरी रेत जिसे महोदधी का पवित्र जल धोता रहता है। सिर वाला क्षेत्र पश्चिम दिशा में है जिसकी रक्षा महादेव करते हैं।
शंख के दूसरे घेरे में शिव का दूसरा रूप ब्रह्म कपाल मोचन विराजमान है।
माना जाता है कि भगवान ब्रह्मा का एक सिर महादेव की हथेली से चिपक गया था और वह यहीं आकर गिरा था, तभी से यहां पर महादेव की ब्रह्म रूप में पूजा करते हैं।
शंख के तीसरे वृत्त में मां विमला और नाभि स्थल में भगवान जगन्नाथ रथ सिंहासन पर विराजमान है।
मंदिर का इतिहास : इस मंदिर का सबसे पहला प्रमाण महाभारत के वनपर्व में मिलता है।
कहा जाता है कि सबसे पहले सबर आदिवासी विश्ववसु ने नीलमाधव के रूप में इनकी पूजा की थी।
आज भी पुरी के मंदिरों में कई सेवक हैं जिन्हें दैतापति के नाम से जाना जाता है।
राजा इंद्रदयुम्न ने बनवाया था यहां मंदिर : राजा इंद्रदयुम्न मालवा का राजा था जिनके पिता का नाम भारत और माता सुमति था।
राजा इंद्रदयुम्न को सपने में हुए थे जगन्नाथ के दर्शन। कई ग्रंथों में राजा इंद्रदयुम्न और उनके यज्ञ के बारे में विस्तार से लिखा है।
उन्होंने यहां कई विशाल यज्ञ किए और एक सरोवर बनवाया।
एक रात भगवान विष्णु ने उनको सपने में दर्शन दिए और कहा नीलांचल पर्वत की एक गुफा में मेरी एक मूर्ति है उसे नीलमाधव कहते हैं। तुम एक मंदिर बनवाकर उसमें मेरी यह मूर्ति स्थापित कर दो।
राजा ने अपने सेवकों को नीलांचल पर्वत की खोज में भेजा। उसमें से एक था ब्राह्मण विद्यापति।
विद्यापति ने सुन रखा था कि सबर कबीले के लोग नीलमाधव की पूजा करते हैं और उन्होंने अपने देवता की इस मूर्ति को नीलांचल पर्वत की गुफा में छुपा रखा है।
वह यह भी जानता था कि सबर कबीले का मुखिया विश्ववसु नीलमाधव का उपासक है और उसी ने मूर्ति को गुफा में छुपा रखा है।
चतुर विद्यापति ने मुखिया की बेटी से विवाह कर लिया। आखिर में वह अपनी पत्नी के जरिए नीलमाधव की गुफा तक पहुंचने में सफल हो गया। उसने मूर्ति चुरा ली और राजा को लाकर दे दी।
विश्ववसु अपने आराध्य देव की मूर्ति चोरी होने से बहुत दुखी हुआ। अपने भक्त के दुख से भगवान भी दुखी हो गए।
भगवान गुफा में लौट गए, लेकिन साथ ही राज इंद्रदयुम्न से वादा किया कि वो एक दिन उनके पास जरूर लौटेंगे बशर्ते कि वो एक दिन उनके लिए विशाल मंदिर बनवा दे।
राजा ने मंदिर बनवा दिया और भगवान विष्णु से मंदिर में विराजमान होने के लिए कहा।
भगवान ने कहा कि तुम मेरी मूर्ति बनाने के लिए समुद्र में तैर रहा पेड़ का बड़ा टुकड़ा उठाकर लाओ, जो द्वारिका से समुद्र में तैरकर पुरी आ रहा है।
राजा के सेवकों ने उस पेड़ के टुकड़े को तो ढूंढ लिया लेकिन सब लोग मिलकर भी उस पेड़ को नहीं उठा पाए।
तब राजा को समझ आ गया कि नीलमाधव के अनन्य भक्त सबर कबीले के मुखिया विश्ववसु की ही सहायता लेना पड़ेगी।
सब उस वक्त हैरान रह गए, जब विश्ववसु भारी-भरकम लकड़ी को उठाकर मंदिर तक ले आए।
अब बारी थी लकड़ी से भगवान की मूर्ति गढ़ने की। राजा के कारीगरों ने लाख कोशिश कर ली लेकिन कोई भी लकड़ी में एक छैनी तक भी नहीं लगा सका।
तब तीनों लोक के कुशल कारीगर भगवान विश्वकर्मा एक बूढ़े व्यक्ति का रूप धरकर आए।
उन्होंने राजा को कहा कि वे नीलमाधव की मूर्ति बना सकते हैं, लेकिन साथ ही उन्होंने अपनी शर्त भी रखी कि वे 21 दिन में मूर्ति बनाएंगे और अकेले में बनाएंगे।
कोई उनको बनाते हुए नहीं देख सकता। उनकी शर्त मान ली गई। लोगों को आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाजें आती रहीं।
राजा इंद्रदयुम्न की रानी गुंडिचा अपने को रोक नहीं पाई। वह दरवाजे के पास गई तो उसे कोई आवाज सुनाई नहीं दी। वह घबरा गई। उसे लगा बूढ़ा कारीगर मर गया है।
उसने राजा को इसकी सूचना दी। अंदर से कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी तो राजा को भी ऐसा ही लगा।
सभी शर्तों और चेतावनियों को दरकिनार करते हुए राजा ने कमरे का दरवाजा खोलने का आदेश दिया।
जैसे ही कमरा खोला गया तो बूढ़ा व्यक्ति गायब था और उसमें 3 अधूरी मूर्तियां मिली पड़ी मिलीं।
भगवान नीलमाधव और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं, जबकि सुभद्रा के हाथ-पांव बनाए ही नहीं गए थे।
राजा ने इसे भगवान की इच्छा मानकर इन्हीं अधूरी मूर्तियों को स्थापित कर दिया। तब से लेकर आज तक तीनों भाई बहन इसी रूप में विद्यमान हैं।
वर्तमान में जो मंदिर है वह 7वीं सदी में बनवाया था। हालांकि इस मंदिर का निर्माण ईसा पूर्व 2 में भी हुआ था।
यहां स्थित मंदिर 3 बार टूट चुका है। 1174 ईस्वी में ओडिसा शासक अनंग भीमदेव ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था।
मुख्य मंदिर के आसपास लगभग 30 छोटे-बड़े मंदिर स्थापित हैं।
हवा के विपरीत लहराता ध्वज : श्री जगन्नाथ मंदिर के ऊपर स्थापित लाल ध्वज सदैव हवा के विपरीत दिशा में लहराता है।
ऐसा किस कारण होता है यह तो वैज्ञानिक ही बता सकते हैं लेकिन यह निश्चित ही आश्चर्यजनक बात है।
यह भी आश्चर्य है कि प्रतिदिन सायंकाल मंदिर के ऊपर स्थापित ध्वज को मानव द्वारा उल्टा चढ़कर बदला जाता है।
ध्वज भी इतना भव्य है कि जब यह लहराता है तो इसे सब देखते ही रह जाते हैं।
ध्वज पर शिव का चंद्र बना हुआ है।
गुंबद की छाया नहीं बनती : यह दुनिया का सबसे भव्य और ऊंचा मंदिर है।
यह मंदिर 4 लाख वर्गफुट में क्षेत्र में फैला है और इसकी ऊंचाई लगभग 214 फुट है।
मंदिर के पास खड़े रहकर इसका गुंबद देख पाना असंभव है। मुख्य गुंबद की छाया दिन के किसी भी समय अदृश्य ही रहती है।
हमारे पूर्वज कितने बड़े इंजीनियर रहे होंगे यह इस एक मंदिर के उदाहरण से समझा जा सकता है।
पुरी के मंदिर का यह भव्य रूप 7वीं सदी में निर्मित किया गया।
चमत्कारिक सुदर्शन चक्र : पुरी में किसी भी स्थान से आप मंदिर के शीर्ष पर लगे सुदर्शन चक्र को देखेंगे तो वह आपको सदैव अपने सामने ही लगा दिखेगा।
इसे नीलचक्र भी कहते हैं। यह अष्टधातु से निर्मित है और अति पावन और पवित्र माना जाता है।
हवा की दिशा : सामान्य दिनों के समय हवा समुद्र से जमीन की तरफ आती है और शाम के दौरान इसके विपरीत, लेकिन पुरी में इसका उल्टा होता है।
अधिकतर समुद्री तटों पर आमतौर पर हवा समुद्र से जमीन की ओर आती है, लेकिन यहां हवा जमीन से समुद्र की ओर जाती है।
गुंबद के ऊपर नहीं उड़ते पक्षी : मंदिर के ऊपर गुंबद के आसपास अब तक कोई पक्षी उड़ता हुआ नहीं देखा गया।
इसके ऊपर से विमान नहीं उड़ाया जा सकता।
मंदिर के शिखर के पास पक्षी उड़ते नजर नहीं आते, जबकि देखा गया है कि भारत के अधिकतर मंदिरों के गुंबदों पर पक्षी बैठ जाते हैं या आसपास उड़ते हुए नजर आते हैं।
दुनिया का सबसे बड़ा रसोईघर : 500 रसोइए 300 सहयोगियों के साथ बनाते हैं भगवान जगन्नाथजी का प्रसाद।
लगभग 20 लाख भक्त कर सकते हैं यहां भोजन।
कहा जाता है कि मंदिर में प्रसाद कुछ हजार लोगों के लिए ही क्यों न बनाया गया हो लेकिन इससे लाखों लोगों का पेट भर सकता है।
मंदिर के अंदर पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसाद की एक भी मात्रा कभी भी व्यर्थ नहीं जाती।
मंदिर की रसोई में प्रसाद पकाने के लिए 7 बर्तन एक-दूसरे पर रखे जाते हैं और सब कुछ लकड़ी पर ही पकाया जाता है।
इस प्रक्रिया में शीर्ष बर्तन में सामग्री पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद एक पकती जाती है अर्थात सबसे ऊपर रखे बर्तन का खाना पहले पक जाता है।
समुद्र की ध्वनि : मंदिर के सिंहद्वार में पहला कदम प्रवेश करने पर ही (मंदिर के अंदर से) आप सागर द्वारा निर्मित किसी भी ध्वनि को नहीं सुन सकते।
आप (मंदिर के बाहर से) एक ही कदम को पार करें, तब आप इसे सुन सकते हैं। इसे शाम को स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है।
इसी तरह मंदिर के बाहर स्वर्ग द्वार है, जहां पर मोक्ष प्राप्ति के लिए शव जलाए जाते हैं लेकिन जब आप मंदिर से बाहर निकलेंगे तभी आपको लाशों के जलने की गंध महसूस होगी।
रूप बदलती मूर्ति : यहां श्रीकृष्ण को जगन्नाथ कहते हैं। जगन्नाथ के साथ उनके भाई बलभद्र (बलराम) और बहन सुभद्रा विराजमान हैं।
तीनों की ये मूर्तियां काष्ठ की बनी हुई हैं। यहां प्रत्येक 12 साल में एक बार होता है प्रतिमा का नव कलेवर।
मूर्तियां नई जरूर बनाई जाती हैं लेकिन आकार और रूप वही रहता है। कहा जाता है कि उन मूर्तियों की पूजा नहीं होती, केवल दर्शनार्थ रखी गई हैं।
विश्व की सबसे बड़ी रथयात्रा : आषाढ़ माह में भगवान रथ पर सवार होकर अपनी मौसी रानी गुंडिचा के घर जाते हैं।
यह रथयात्रा 5 किलोमीटर में फैले पुरुषोत्तम क्षेत्र में ही होती है।
रानी गुंडिचा भगवान जगन्नाथ के परम भक्त राजा इंद्रदयुम्न की पत्नी थी इसीलिए रानी को भगवान जगन्नाथ की मौसी कहा जाता है।
अपनी मौसी के घर भगवान 8 दिन रहते हैं। आषाढ़ शुक्ल दशमी को वापसी की यात्रा होती है।
भगवान जगन्नाथ का रथ नंदीघोष है। देवी सुभद्रा का रथ दर्पदलन है और भाई बलभद्र का रक्ष तल ध्वज है।
पुरी के गजपति महाराज सोने की झाड़ू बुहारते हैं जिसे छेरा पैररन कहते हैं।
इस मंदिर को हिन्दुओं के चार धाम में से एक गिना जाता है। यह वैष्णव सम्प्रदाय का मंदिर है।
पुरी जगन्नाथ मंदिर भारत के दस अमीर मंदिरों में से एक है। इस मंदिर के लिए जो भी दान आता है। वह मंदिर की व्यवस्था और सामाजिक कामों में खर्च किया जाता है।
सांई बाबा मंदिर शिरडी
सांई बाबा एक भारतीय गुरु, योगी और फकीर थे, उन्हें उनके भक्तों द्वारा संत कहा जाता है।
उनके असली नाम, जन्म, पता और माता पिता के सन्दर्भ में कोई सूचना उपलब्ध नहीं है।
सांई शब्द उन्हें भारत के पश्चिमी भाग में स्थित प्रांत महाराष्ट्र के शिर्डी नामक कस्बे में पहुंचने के बाद मिला।
शिर्डी सांई बाबा मंदिर भी यहीं बना हुआ है। सांई बाबा मंदिर भारत के अमीर मंदिरों में से एक माना जाता है।
इस मंदिर की संपत्ति और आय दोनों ही करोड़ों में है। मंदिर के पास लगभग 32 करोड़ की चांदी के जेवर हैं। 6 लाख कीमत के चांदी के सिक्के हैं।
साथ ही, हर साल लगभग 350 करोड़ का दान आता है। शिरडी के साईं की प्रसिद्धि दूर दूर तक है और यह पवित्र धार्मिक स्थल महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में स्थित है|
यह साईं की धरती है जहां साईं ने अपने चमत्कारों से लोगों को विस्मृत किया|
साईं का जीवन शिरडी में बीता जहां उन्होंने लोक कल्याणकारी कार्य किए|
शिरडी के साईं की प्रसिद्धि दूर दूर तक है और यह पवित्र धार्मिक स्थल महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में स्थित है|

यह साईं की धरती है जहां साईं ने अपने चमत्कारों से लोगों को विस्मृत किया|
साईं का जीवन शिरडी में बीता जहां उन्होंने लोक कल्याणकारी कार्य किए| उन्होंने अपने अनुयायियों को भक्ति और धर्म की शिक्षा दी|
साईं के अनुयायियों में देश के बड़े-बड़े नेता, खिलाड़ी, फिल्म कलाकार, बिजनेसमैन, शिक्षाविद समेत करोड़ों लोग शामिल हैं.
शिरडी में साईं का एक विशाल मंदिर है| मान्यता है कि, चाहे गरीब हो या अमीर साईं के दर्शन करने इनके दरबार पहुंचा कोई भी शख्स खाली हाथ नहीं लौटता है|
सभी की मुरादें और मन्नतें पूरी होती हैं| शिरडी के साईं बाबा
शिरडी के साईं बाबा का वास्तविक नाम, जन्मस्थान और जन्म की तारीख किसी को पता नहीं है|
हालांकि साईं का जीवनकाल 1838-1918 तक माना जाता है|
कई लेखकों ने साईं पर पुस्तकें लिखीं हैं| साईं पर लगभग 40 किताबें लिखी गई हैं| शिरडी में साईं कहां से प्रकट हुए यह कोई नहीं जानता|
साईं असाधारण थे और उनकी कृपा वहां के सीधे-सादे गांववालों पर सबसे पहले बरसी| आज शिरडी एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल है|
साईं के उपदेशों से लगता है कि इस संत का धरती पर प्रकट होना लोगों में धर्म, जाति का भेद मिटाने और शान्ति, समानता की समृद्धि के लिए हुआ था|
साईं बाबा को बच्चों से बहुत स्नेह था. साईं ने सदा प्रयास किया कि लोग जीवन की छोटी-छोटी समस्याओं व मुसीबतों में एक दूसरे की सहायता करें और एक दूसरे के मन में श्रद्धा और भक्ति का संचार करें|
इस उद्देश्य के लिए उन्हें अपनी दिव्य शक्ति का भी प्रयोग करना पड़ा| शिरडी का साईं मंदिर
शिरडी में साईं बाबा का पवित्र मंदिर साईं की समाधि के ऊपर बनाया गया है|
साईं के कार्यों को आगे बढ़ाने के लिए इस मंदिर का निर्माण 1922 में किया गया था|
साईं 16 साल की उम्र में शिरडी आए और चिरसमाधि में लीन होने तक यहीं रहे| साईं को लोग आध्यात्मिक गुरु और फकीर के रूप में भी जानते हैं|
साईं के अनुयायियों में हिंदू के साथ ही मुस्लिम भी हैं| इसका कारण है कि अपने जीवनकाल के दौरान साईं मस्जिद में रहे थे जबकि उनकी समाधि को मंदिर का रूप दिया गया है|
साईं मंदिर में दर्शन
साईं का मंदिर सुबह 4 बजे खुल जाता है. सुबह की आरती 5 बजे होती है|
इसके बाद सुबह 5.40 से श्रद्धालु दर्शन करना शुरू कर देते हैं जो दिनभर चलता रहता है|
इस दौरान दोपहर के वक्त 12 बजे और शाम को सूर्यास्त के तुरंत बाद भी आरती की जाती है|
रात 10.30 बजे दिन की अंतिम साईं आरती के बाद एक शॉल साईं की विशाल मूर्ति के चारो ओर लपेट दी जाती है और साईं को रुद्राक्ष की माला पहनाई जाती है|
इसके पश्चात मूर्ति के समीप एक गिलास पानी रख दिया जाता है और फिर मच्छरदानी लगा दिया जाता है|
रात 11.15 बजे मंदिर का पट बंद कर दिया जाता है|
साईं को रिकार्ड चढ़ावा
साईं के समाधि पर प्रतिदिन लाखों की तादाद में लोग आते हैं और साईं की झोली में अपनी श्रद्धा और भक्ति के अनुरूप कुछ दे कर चले जाते हैं|
शिरडी के साईं बाबा का मंदिर अपने रिकार्ड तोड़ चढ़ावे के लिए हमेशा खबरों में भी रहता है
साल दर साल यह रिकार्ड टूटता ही जा रहा है. किसी ने साईं को सोने का मुकुट दिया तो किसी ने सोने का सिंहासन|
किसी ने चांदी की बेशकीमती आभूषण दिए तो किसी ने करोड़ों की संपत्ति|
कोई करोड़ों का गुप्तदान करके चला गया तो किसी ने अपनी पूरी जायदाद भगवान के हवाले कर दी|
साईं म्यूजियम
साईं से जुड़े विभिन्न वस्तुओं का संग्रह है साईं म्यूजियम|
यह म्यूजियम साईंबाबा संस्थान की देखरेख में चलाया जाता है और यहां साईं से जुड़ी कई निजी वस्तुएं भक्तों के दर्शन हेतु रखे गए हैं|
साईं का पादुका, खानदोबा के पुजारी को साईं के दिए सिक्के, समूह में लोगों को खिलाने के लिए इस्तेमाल किए गए बर्तन, साईं द्वारा इस्तेमाल की गई पीसने की चक्की उन वस्तुओं में शामिल हैं जो लोगों को दर्शन के लिए इस म्यूजिमय में रखी गई हैं.
खानडोबा मंदिर
खानडोबा मंदिर मुख्य मार्ग पर स्थित है| इस मंदिर के मुख्य पुजारी महलसापति ने साईं का शिरडी में स्वागत करते हुए कहा था ‘आओ साईं’|
इस मंदिर में खनडोबा, बनाई और महलसाईं के प्रतीक रखे गए हैं|
शनि शिंगणापुर
अहमदनगर जिले में ही स्थित है प्रसिद्ध शनि शिंगणापुर मंदिर जो साईं के मंदिर से करीब 65 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है|
शनि शिंगणापुर गांव कि खासियत यहां के कई घरों में दरवाजे का ना होना है|
यहां के घरों में कहीं भी कुंडी तथा कड़ी लगाकर ताला नहीं लगाया जाता है|
मान्यता है कि ऐसा शनिदेव की आज्ञा से किया जाता है|
सिद्घिविनायक मंदिर मुंबई
सिद्घिविनायक गणेश जी का सबसे लोकप्रिय रूप है।
गणेश जी की जिन प्रतिमाओं की सूड़ दाईं तरह मुड़ी होती है, वे सिद्घपीठ से जुड़ी होती हैं और उनके मंदिर सिद्घिविनायक मंदिर कहलाते हैं।
सिद्धि विनायक की महिमा अपरंपार है, वे भक्तों की मनोकामना को तुरंत पूरा करते हैं।
मान्यता है कि ऐसे गणपति बहुत ही जल्दी प्रसन्न होते हैं और उतनी ही जल्दी कुपित भी होते हैं।
सिद्धी विनायक मंदिर भारत के रईस मंदिरों में से एक माना जाता है।
इस मंदिर को 3.7 किलोग्राम सोने से कोट किया गया है, जो कि कोलकत्ता के एक व्यापारी ने दान किया था।

हिंदू भगवान गणपति को समर्पित इस मंदिर में सन 1900 से पर्यटक नियमित रूप से आते हैं।
पहले यह ईंटों की बनी हुई कुछ फुट चौड़ी संरचना थी जो आज मुंबई का सबसे धनी मंदिर बन गया है और कई लोगों के दिल के बहुत करीब है।
सावधान रहें, यदि आप सही समय और दिन में यहाँ नही पहुँचते हैं तो आपको कई घंटे लाइन में खड़ा रहना पड़ सकता है।
मंदिर की वास्तुकला और पर्यटकों का प्रबंधन उल्लेखनीय है।
कोई भी शुभ काम शुरू करने से पहले भगवान गणेश की पूजा जरूर की जाती है।
इस तरह की स्थिति को हम ‘श्रीगणेश’ के नाम से भी जानते हैं।
मुंबई के प्रभादेवी में स्थित श्री सिद्धिविनायक मंदिर देश में स्थित सबसे पूजनीय मंदिरों में से एक है।
यह मंदिर भगवान गणेश को समर्पित है।
भक्त जब भी किसी नए काम की शुरुआत करता है तो इस मंदिर के दर्शन जरूर करता है।
हर साल यहां लाखों श्रद्धालु और पर्यटक आते हैं और भगवान गणेश की पूजा करते हैं।
पौराणिक कथा
मान्यता है कि जब सृष्टि की रचना करते समय भगवान विष्णु को नींद आ गई, तब भगवान विष्णु के कानों से दो दैत्य मधु व कैटभ बाहर आ गए।
ये दोनों दैत्यों बाहर आते ही उत्पात मचाने लगे और देवताओं को परेशान करने लगे।
दैत्यों के आंतक से मुक्ति पाने हेतु देवताओं ने श्रीविष्णु की शरण ली।
तब विष्णु शयन से जागे और दैत्यों को मारने की कोशिश की लेकिन वह इस कार्य में असफल रहे।
तब भगवान विष्णु ने श्री गणेश का आह्वान किया, जिससे गणेश जी प्रसन्न हुए और दैत्यों का संहार हुआ।
इस कार्य के उपरांत भगवान विष्णु ने पर्वत के शिखर पर मंदिर का निर्माण किया तथा भगवान गणेश की मूर्ति स्थापित की।
तभी से यह स्थल ‘सिद्धटेक’ नाम से जाना जाता है।
सिद्धिविनायक मंदिर का इतिहास
मुंबई स्थित सिद्धिविनायक मंदिर का निर्माण 19 नवंबर, 1801 को लक्ष्मण विट्ठु और देउबाई पाटिल ने किया था।
निर्माण के बाद भी समय-समय पर इस मंदिर को एक नया रूप दिया गया।
महाराष्ट्र सरकार ने इस मंदिर के भव्य निर्माण के लिए जमीन प्रदान की जिस पर पांच मंजिला मंदिर का निर्माण किया गया।
सिद्धिविनायक मंदिर
सिद्धिविनायक मंदिर के अंदर एक छोटे मंडपम में भगवान गणेश के सिद्धिविनायक रूप की प्रतिमा प्रतिष्ठापित की गई है।
मंदिर में लकड़ी के दरवाजों पर अष्टविनायक को प्रतिबिंबित किया गया है। जबकि मंदिर के अंदर की छतें सोने के लेप से सुसज्जित की गई हैं।
सिद्धिविनायक मंदिर की गिनती अमीर मंदिरों में की जाती है। इस मंदिर से करोड़ों रुपए की आय होती है।
सिद्धिविनायक मंदिर का महत्व
सिद्धिविनायक मंदिर उन गणेश मंदिरों में से एक है, जहां केवल हिन्दू ही नहीं, बल्कि हर धर्म और जाति के लोग दर्शन और पूजा-अर्चना के लिए आते हैं।
कहते हैं कि सिद्धि विनायक की महिमा अपरंपार है, वे भक्तों की मनोकामना को तुरंत पूरा करते हैं।
मान्यता है कि ऐसे गणपति बहुत ही जल्दी प्रसन्न होते हैं और उतनी ही जल्दी कुपित भी होते हैं।
सिद्धिविनायक मंदिर भगवान गणेश के लोकप्रिय मंदिरों में से एक है। यहां पूरे साल भक्तों की भीड़ उमड़ती है।
देश-विदेश से श्रद्धालु और पर्यटक भगवान गणेश के दर्शन के लिए यहां आते हैं।
वैसे अगर आप भी सिद्धिविनायक मंदिर जा रहे हैं तो आप महालक्ष्मी मंदिर, चौपाटी और जूहू बीच, गेटवे ऑफ इंडिया, हाजी अली, माउंट मेरी चर्च जाना न भूलें।
यह सारे लोकप्रिय स्थल सिद्धिविनायक मंदिर से कुछ ही किलोमीटर के अंदर स्थित हैं।
ट्रेन और वायु मार्ग से आप आसानी से मुंबई पहुंचकर न केवल सिद्धिविनायक मंदिर के दर्शन कर पाएंगे बल्कि अन्य उपरोक्त पर्यटक स्थल से रूबरू हो पाएंगे।
वैष्णो देवी मंदिर
भारत में हिन्दूओं का पवित्र तीर्थस्थल वैष्णो देवी मंदिर है जो त्रिकुटा हिल्स में कटरा नामक जगह पर 1700 मी. की ऊंचाई पर स्थित है।
मंदिर के पिंड एक गुफा में स्थापित है, गुफा की लंबाई 30 मी. और ऊंचाई 1.5 मी. है।
लोकप्रिय कथाओं के अनुसार, देवी वैष्णों इस गुफा में छिपी और एक राक्षस का वध कर दिया।
मंदिर का मुख्य आकर्षण गुफा में रखे तीन पिंड है। इस मंदिर की देखरेख की जिम्मेदारी वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड की है।
आंध्र प्रदेश के तिरुमला वेंकटेश्वर मंदिर के बाद इसी मंदिर में भक्तों द्वारा सबसे ज्यादा दर्शन किए जाते है।
यहां हर साल लगभग 500 करोड़ का दान आता है।

माँ वैष्णो देवी उत्तर भारत के सबसे पूजनीय और पवित्र स्थलों में से एक है।
यह मंदिर पहाड़ पर स्थित होने के कारण अपनी भव्यता व सुंदरता का प्रतिक है।
वैष्णो देवी भी ऐसे ही स्थानों में एक है जिसे माता का निवास स्थान माना जाता है।
वैष्णो देवी मंदिर 5,200 फीट की ऊंचाई और कटरा से लगभग 14 km की दूरी पर स्थित है।
हर साल लाखों तीर्थ यात्री मंदिर के दर्शन करते हैं।
यह भारत में तिरुमला वेंकटेश्वर मंदिर के बाद दूसरा सर्वाधिक देखा जाने वाला धार्मिक तीर्थस्थल है।
वैसे तो माता वैष्णो देवी के सम्बन्ध में कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं लेकिन मुख्य 2 कथाएँ अधिक प्रचलित हैं।
माँ वैष्णो देवी की प्रथम कथा मान्यतानुसार एक बार पहाड़ों वाली माता ने अपने एक परम श्रीधर की भक्त से प्रसन्न होकर उसकी लाज बचाई और पूरे सृष्टि को अपने का होने प्रमाण दिया।
वर्तमान कटरा कस्बे से 2 कि.मी. की दूरी पर स्थित हंसाली गांव में मां वैष्णवी के परम भक्त श्रीधर रहते थे।
वह नि:संतान होने से दु:खी रहते थे। एक दिन उन्होंने नवरात्रि पूजन के लिए कुँवारी कन्याओं को बुलवाया।
माँ वैष्णो कन्या वेश में उन्हीं के बीच आ बैठीं।
पूजन के बाद सभी कन्याएं तो चली गई पर माँ वैष्णो देवी वहीं रहीं और श्रीधर से बोलीं- ‘सबको अपने घर भंडारे का निमंत्रण दे आओ।’ श्रीधर ने उस दिव्य कन्या की बात मान ली और आस – पास के गाँवों में भंडारे का संदेश पहुँचा दिया।
वहाँ से लौटकर आते समय गुरु गोरखनाथ व उनके शिष्य बाबा भैरवनाथ जी के साथ उनके दूसरे शिष्यों को भी भोजन का निमंत्रण दिया।
भोजन का निमंत्रण पाकर सभी गांववासी अचंभित थे कि वह कौन सी कन्या है जो इतने सारे लोगों को भोजन करवाना चाहती है|
इसके बाद श्रीधर के घर में अनेक गांववासी आकर भोजन के लिए एकत्रित हुए।
तब कन्या रुपी माँ वैष्णो देवी ने एभोजन परोसते हुए जब वह कन्या भैरवनाथ के पास गई।
तब उसने कहा कि मैं तो खीर – पूड़ी की जगह मांस भक्षण और मदिरापान करुंगा।
तब कन्या रुपी माँ ने उसे समझाया कि यह ब्राह्मण के यहां का भोजन है, इसमें मांसाहार नहीं किया जाता। किंतु भैरवनाथ ने जान – बुझकर अपनी बात पर अड़ा रहा।
जब भैरवनाथ ने उस कन्या को पकडऩा चाहा, तब माँ ने उसके कपट को जान लिया।
माँ ने वायु रूप में बदलकरत्रिकूट पर्वत की ओर उड़ चली। भैरवनाथ भी उनके पीछे गया।
माना जाता है कि माँ की रक्षा के लिए पवनपुत्र हनुमान भी थे।
मान्यता के अनुसार उस वक़्त भी हनुमानजी माता की रक्षा के लिए उनके साथ ही थे।
हनुमानजी को प्यास लगने पर माता ने उनके आग्रह पर धनुष से पहाड़ पर बाण चलाकर एक जलधारा निकाला और उस जल में अपने केश धोए।
आज यह पवित्र जलधारा बाणगंगा के नाम से जानी जाती है, जिसके पवित्र जल का पान करने या इससे स्नान करने से श्रद्धालुओं की सारी थकावट और तकलीफें दूर हो जाती हैं।
इस दौरान माता ने एक गुफा में प्रवेश कर नौ माह तक तपस्या की। भैरवनाथ भी उनके पीछे वहां तक आ गया।
तब एक साधु ने भैरवनाथ से कहा कि तू जिसे एक कन्या समझ रहा है, वह आदिशक्ति जगदम्बा है।
इसलिए उस महाशक्ति का पीछा छोड़ दे।
भैरवनाथ साधु की बात नहीं मानी। तब माता गुफा की दूसरी ओर से मार्ग बनाकर बाहर निकल गईं।
यह गुफा आज भी अर्धकुमारी या आदिकुमारी या गर्भजून के नाम से प्रसिद्ध है।
अर्धक्वाँरी के पहले माता की चरण पादुका भी है। यह वह स्थान है, जहाँ माता ने भागते – भागते मुड़कर भैरवनाथ को देखा था।
गुफा से बाहर निकल कर कन्या ने देवी का रूप धारण किया। माता ने भैरवनाथ को चेताया और वापस जाने को कहा। फिर भी वह नहीं माना। माता गुफा के भीतर चली गई।
तब माता की रक्षा के लिए हनुमान जी ने गुफा के बाहर भैरव से युद्ध किया भैरव ने फिर भी हार नहीं मानी जब वीर हनुमान निढाल होने लगे, तब माता वैष्णवी ने महाकाली का रूप लेकर भैरवनाथ का संहार कर दिया।
भैरवनाथ का सिर कटकर भवन से 8 किमी दूर त्रिकूट पर्वत की भैरव घाटी में गिरा।
उस स्थान को भैरोनाथ के मंदिर के नाम से जाना जाता है। जिस स्थान पर माँ वैष्णो देवी ने हठी भैरवनाथ का वध किया, वह स्थान पवित्र गुफा’ अथवा ‘भवन के नाम से प्रसिद्ध है।
इसी स्थान पर माँ काली (दाएँ), माँ सरस्वती (मध्य) और माँ लक्ष्मी (बाएँ) पिंडी के रूप में गुफा में विराजित हैं।
इन तीनों के सम्मिलत रूप को ही माँ वैष्णो देवी का रूप कहा जाता है।
इन तीन भव्य पिण्डियों के साथ कुछ श्रद्धालु भक्तों एव जम्मू कश्मीर के भूतपूर्व नरेशों द्वारा स्थापित मूर्तियाँ एवं यन्त्र इत्यादी है।
कहा जाता है कि अपने वध के बाद भैरवनाथ को अपनी भूल का पश्चाताप हुआ और उसने माँ से क्षमादान की भीख माँगी।
माता वैष्णो देवी जानती थीं कि उन पर हमला करने के पीछे भैरव की प्रमुख मंशा मोक्ष प्राप्त करने की थी, उन्होंने न केवल भैरव को पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति प्रदान की, बल्कि उसे वरदान देते हुए कहा कि मेरे दर्शन तब तक पूरे नहीं माने जाएँगे, जब तक कोई भक्त मेरे बाद तुम्हारे दर्शन नहीं करेगा।
उसी मान्यता के अनुसार आज भी भक्त माता वैष्णो देवी के दर्शन करने के बाद 8 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़कर भैरवनाथ के दर्शन करने को जाते हैं।
इस बीच वैष्णो देवी ने तीन पिंड (सिर) सहित एक चट्टान का आकार ग्रहण किया और सदा के लिए ध्यानमग्न हो गईं।
इस बीच पंडित श्रीधर अधीर हो गए। वे त्रिकुटा पर्वत की ओर उसी रास्ते आगे बढ़े, जो उन्होंने सपने में देखा था, अंततः वे गुफ़ा के द्वार पर पहुंचे, उन्होंने कई विधियों से ‘पिंडों’ की पूजा को अपनी दिनचर्या बना ली, देवी उनकी पूजा से प्रसन्न हुईं, वे उनके सामने प्रकट हुईं और उन्हें आशीर्वाद दिया।
तब से, श्रीधर और उनके वंशज देवी मां वैष्णो देवी की पूजा करते आ रहे हैं।
सोमनाथ मंदिर गुजरात
सोमनाथ एक महत्वपूर्ण हिन्दू मंदिर है जिसकी गिनती 12 ज्योतिर्लिंगों में प्रथम ज्योतिर्लिंग के रूप में होती है।
गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र के वेरावल बंदरगाह पर स्थित इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण स्वयं चन्द्रदेव ने किया था।
इसका उल्लेख ऋग्वेद में भी मिलता है। इसे अब तक 17 बार नष्ट किया गया है और हर बार इसका पुनर्निर्माण किया गया। सोमनाथ में हर साल करोड़ों को चढ़ावा आता है।
इसलिए ये भारत के अमीर मंदिरों में से एक है।

भारत में प्राचीन मंदिरों का एक अलग ही इतिहास रहा है|
यहां छोटे से छोटे मंदिरों से कोई न कोई कहानी जुड़ी हुई है|
भारत में सोमनाथ मंदिर ऐसा ही एक मंदिर है, जिसका इतिहास बेहद खास है|
यह मंदिर गुजरात के सौराष्ट्र में स्थित है|
भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग में से सोमनाथ मंदिर को सबसे पहला मंदिर माना जाता है|
17 बार तोड़कर किया गया पुर्नजीवित
ऋग्वेद में उल्लेख किया गया है कि सोमनाथ मंदिर का निर्माण चंद्रदेव ने किया था|
इतिहासकारों के मुताबिक, सोमनाथ मंदिर को वर्ष 1024 ईसवी में महमूद गजनबी ने तहस-नहस कर दिया था|
मूर्ति को तोड़ने से लेकर यहां पर चढ़े सोने-चांदी तक के सभी आभूषणों को लूट लिया था|
हीरे-जवाहरातों को लूटकर अपने देश गजनी लेकर चला गया था|
महमूद गजनवी के बाद कई मुगल शासकों ने सोमनाथ को खंडित कर लूटपाट की इसे 17 बार नष्ट किया गया और हर बार इसका पुनर्निर्माण किया गया|
गुरुवयुर मंंदिर केरल
गुरुवयुर श्री कृष्ण मंदिर गुरुवयुर केरला में स्थित है।
यह मंदिर विष्णु भगवान का सबसे पवित्र मंदिर माना जाता है।
कहा जाता है कि यह मंदिर लगभग 5000 साल पुराना है।
गुरुवयुर मंंदिर वैष्णवों की आस्था का केंद्र है।
अपने खजाने के कारण यह मंदिर भी भारत के 10 सबसे अमीर मंदिरों में से एक है।
गुरूवायूर खासतौर पर अपने कृष्ण मंदिर के लिए देश-भर में प्रसिद्ध है। माना जाता है कि गुरूवायूर मंदिर का इतिहास कई शताब्दियों पुराना है।
अपनी मंदिर विशेषता के चलते यह नगर राज्य के सबसे महत्वपूर्ण स्थानों में गिना जाता है।
केवल इस मंदिर के आकर्षण और भगवान कृष्ण के दर्शन करने के लिए यहां देशभर से श्रद्धालु आते हैं।
यहां भगवान कृष्ण गुरूवायुरप्पन के नाम से पूजे जाते हैं, जो भगवान कृष्ण का बालरूप हैं।
बता दें कि इस मंदिर में गैर-हिन्दूओं का आना पूर्णता वर्जित है, यहां केवल गुरूवायुरप्पन के अनुयायी और हिन्दू धर्म से जुड़े श्रद्धालु की प्रवेश कर सकते हैं।
भगवान कृष्ण के विषय में यह मंदिर बहुत सी जानकारी प्रदान करता है, इसके अलावा कला-संस्कृति के लिए भी यह मंदिर काफी ज्यादा विख्यात है।
मंदिर में आयोजित होने वाला शास्त्रीय नृत्य कृष्णनट्टम यहां काफी ज्यादा प्रचलित है।

गुरूवायूर मंदिर के दर्शन के बाद अगर आप चाहें तो आसपास के प्रसिद्ध स्थानों की सैर का आनंद ले सकते हैं।
गुरूवायूर शहर से लगभग 4 किमी की दूरी पर एक अनाकोट्टा नामक स्थान पड़ता है जो अपने हाथियों के पार्क के लिए काफी ज्यादा लोकप्रिय है।
गुरूवायूर मंदिर से जुड़े हाथियों को यहां 10 एकड़ के क्षेत्र में रखा जाता है, जिनका यहां अच्छी तरह रखरखाव होता है। यहां लगभग 50 से 80 हाथी रहते हैं।
पर्यटक हाथियों को देखने के लिए यहां आते हैं। यहां हाथियों के खाने से लेकर उनके स्नान, सोने की अच्छी व्यवस्था है।
यह पूरा क्षेत्र घने पेड़ों से भरा है जो हाथियों को काफी ज्यादा आराम प्रदान करते हैं।
आप यहां आराम से हाथियों को देखने का आनंद उठा सकते हैं। यहां रहने वाले सारे हाथी काफी शांत हैं।
काशी विश्वनाथ मंदिर वाराणसी
काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है।
यह मंदिर वाराणसी में स्थित है। काशी विश्वनाथ मंदिर का हिंदू धर्म में एक विशिष्ट स्थान है।
ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
वर्तमान मंदिर का निर्माण महारानी अहिल्या बाई होल्कर द्वारा सन 1780 में करवाया गया था।
बाद में महाराजा रंजीत सिंह द्वारा 1853 में 1000 कि.ग्रा शुद्ध सोने द्वारा मढ़वाया गया था।
काशी विश्वनाथ भी भारत के अमीर मंदिरों में से एक है। यहां हर साल करोड़ों का चढ़ावा आता है।

शिव की नगरी काशी में देवादिदेव महादेव साक्षात वास करते हैं| यहां बाबा विश्वनाथ के दो मंदिर बेहद खास हैं|
शिव की नगरी काशी में महादेव साक्षात वास करते हैं| यहां बाबा विश्वनाथ के दो मंदिर बेहद खास हैं|
पहला विश्वनाथ मंदिर जो 12 ज्योतिर्लिंगों में नौवां स्थान रखता है, वहीं दूसरा जिसे नया विश्वनाथ मंदिर कहा जाता है|
यह मंदिर काशी विश्वविद्यालय के प्रांगण में स्थित है|
काशी नगरी पतित पावनी गंगा के तट पर बसी यह भी कहा जाता है कि काशी नगरी देवादिदेव महादेव की त्रिशूल पर बसी है|
धर्मग्रन्थों और पुराणों में जिसे मोक्ष की नगरी कहा गया है जो अनंतकाल से बाबा विश्वनाथ के भक्तों के जयकारों से गूंजती आयी है, शिव भक्तों की वो मंजिल है जो सदियों से यहां मोक्ष की तलाश में आते रहे हैं|
काशी की इस यात्रा पर हम आपको महादेव के दो ऐसे रूपों के दर्शन कराएंगे, जिन्हें बाबा विश्वनाथ के नाम से पुकारा जाता है|
आप सोच रहे होंगे कि एक ही नगरी में भोले के दो रूप वो भी एक ही नाम से कैसे?
वाराणसी के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में विराजमान बाबा विश्वनाथ की महिमा और उनके महत्व के बारे में भी हम आपको बताएंगे|
काशी विश्वनाथ मंदिर के अर्चक श्रीकांत मिश्र कहते हैं कि 12 ज्योतिर्लिंगों में काशी विश्वनाथ का नौवां स्थान है|
मान्यता है कि अगर कोई भक्त बाबा विश्वनाथ के दरबार में हाजिरी लगाता है तो उसे जन्म-जन्मांतर के चक्र से मुक्ति मिल जाती है|
बाबा का आशीर्वाद अपने भक्तों के लिए मोक्ष का द्वार खोल देता है|
ऐसी मान्यता है कि एक भक्त को भगवान शिव ने सपने में दर्शन देकर कहा था कि गंगा स्नान के बाद उसे दो शिवलिंग मिलेंगे और जब वो उन दोनों शिवलिंगों को जोड़कर उन्हें स्थापित करेगा तो शिव और शक्ति के दिव्य शिवलिंग की स्थापना होगी और तभी से भगवान शिव यहां मां पार्वती के साथ विराजमान हैं|
एक दूसरी मान्यता के मुताबिक, मां भगवती ने खुद महादेव को यहां स्थापित किया था|
बाबा विश्वनाथ के मंदिर में तड़के सुबह की मंगला आरती के साथ पूरे दिन में चार बार आरती होती है|
मान्यता है कि सोमवार को चढ़ाए गए जल का पुण्य अधिक मिलता है|
खासतौर पर सावन के सोमवार में यहां जलाभिषेक करने का अपना एक अलग ही महत्व है|
श्रीकांत मिश्र कहते हैं कि सावन का हर दिन पावन है और इस दौरान जल चढ़ाने से बाबा प्रसन्न होते हैं|
काशी के कण-कण में चमत्कार की कहानियां भरी पड़ी हैं, लेकिन बाबा विश्वनाथ के इस धाम में आकर भक्तों की सभी मुरादें पूरी हो जाती हैं औऱ जीवन धन्य हो जाता है|
एक तरफ शिव के विराट और बेहद दुर्लभ रूप के दर्शनों का सौभाग्य मिलता है, वहीं गंगा में स्नान कर सभी पाप धुल जाते हैं.
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय परिसर में मौजूद नए काशी विश्वनाथ मंदिर कहने को नया है, लेकिन इस मंदिर का भी महत्व उतना ही है जितना पुराने काशी विश्वनाथ का कहते हैं|
यहां आकर भोले भंडारी के दर्शन कर जिसने भी रूद्राभिषेक कर लिया, उसकी सभी मुरादें हो जाती हैं|
उसके लिए मोक्ष के द्वार खुल जाते हैं|
यहां देवगण विराजते हैं और गंगा की धार बहती है, वो परमतीर्थ वाराणसी कहलाता है|
यहां आने भर से ही भक्तों की पीड़ा दूर हो जाती है| तन-मन को असीम शांति मिलती है| क्योंकि यहां स्वयं भगवान शिव विराजते हैं|
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रांगण में काशी के राजा कहे जाने वाले भगवान शिव के दर्शन होते हैं, जिन्हें भक्त बाबा विश्वनाथ के नाम से ही पुकारते हैं|
एक भक्त आनंद शंकर गुप्ता ने कहा, ‘कहते हैं अगर भक्तों के जीवन में ग्रह दशा के कारण परेशानी आ रही है, ग्रहों की चाल ने जीना दूभर कर दिया है तो यहां आकर दर्शन करने के बाद यदि रुद्राभिषेक करा दिया जाए तो भक्तों को ग्रह बाधा से मुक्ति मिल जाती है|
नए विश्वनाथ मंदिर की स्थापना की कहानी जुड़ी है पंडित मदन मोहल मालवीय जी से कहते हैं एक बार मालवीय जी ने बाबा विश्वनाथ की उपासना की, तभी शाम के समय उन्हें एक विशालकाय मूर्ति के दर्शन हुए, जिसने उन्हें बाबा विश्वनाथ की स्थापना का आदेश दिया|
मालवीय जी ने उस आदेश को भोले बाबा की आज्ञा समझकर मंदिर का निर्माण कार्य आरंभ करवाया|लेकिन बीमारी के चलते वो इसे पूरा न करा सके|
तब मालवीय जी की मंशा जानकर उद्योगपति युगल किशोर बिरला ने इस मंदिर के निर्माण कार्य को पूरा करवाया|
वैसे तो मंदिर में बाबा का दर्शन करने वाले हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन आते हैं, लेकिन सावन के महीने में भक्तों की संख्या कई गुना बढ़ जाती है|
मंदिर में लगी देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियों का दर्शन कर लोग जहां अपने आप को कृतार्थ करते हैं, वहीं मंदिर के आस-पास आम कुंजों की हरियाली एवं मोरों की आवाज से भक्त भावविभोर हो जाते हैं|
विद्यार्थी वरुण कुमार राय ने कहा कि पूरे सावन माह और माह के प्रत्येक सोमवार को देश-विदेश से श्रद्धालु यहां भक्तिभाव से जुटते हैं|
इस भव्य मंदिर के शिखर की सर्वोच्चता के साथ ही यहां का आध्यात्मिक, धार्मिक, पर्यावरणीय माहौल दुनियाभर के श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है|
विश्वविद्यालय के प्रांगण में होने के कारण खासकर युवा पीढ़ी के लिए यह मंदिर विशेष आकर्षण का केंद्र बन चुका है|
मीनाक्षी अम्मन मंदिर मदुरै
तमिलनाडु में मदुरै शहर में स्थित मीनाक्षी अम्मन मंदिर प्राचीन भारत के सबसे महत्वपूर्ण मंदिरों में से एक है।
मीनाक्षी अम्मन मंदिर विश्व के नए सात अजूबों के लिए नामित किया गया है।
यह मंदिर भगवान शिव व मीनाक्षी देवी पार्वती के रूप के लिए समर्पित है। मीनाक्षी मंदिर पार्वती के सबसे पवित्र स्थानों में से एक है।
मंदिर का मुख्य गर्भगृह 3500 वर्ष से अधिक पुराना माना जा रहा है। यह मंदिर भी अमीर मंदिरों में से एक माना जाता है।

1- माँ मीनाक्षी भगवान शिव की पत्नी पार्वती का अवतार और भगवान विष्णु की बहन भी है।
इस मंदिर में मां मीनाक्षी की पूजा बड़े ही हर्षोल्लास के साथ पूरे दक्षिण भारत में करने की परम्परा है।
हिन्दु पौराणिक कथानुसार भगवान शिव सुन्दरेश्वरर रूप में अपने गणों के साथ पांड्य राजा मलयध्वज की पुत्री राजकुमारी मीनाक्षी से विवाह रचाने मदुरई नगर में आये थे।
2- मीनाक्षी को देवी पार्वती का अवतार माना जाता है। इस मन्दिर को देवी पार्वती के सर्वाधिक पवित्र स्थानों में से एक माना जाता है।
देवी पार्वती ने पूर्व में पाँड्य राजा मलयध्वज, मदुरई के राजा की घोर तपस्या के फलस्वरूप उनके घर में एक पुत्री के रूप में अवतार लिया था।
वयस्क होने पर उसने नगर का शासन संभाला।
तब भगवान आये और उनसे विवाह प्रस्ताव रखा जो उन्होंने स्वीकार कर लिया।
3- मां का यह विशाल भव्य मंदिर तमिलनाडू के मदुरै शहर में है।
यह मंदिर मीनाक्षी अम्मन मंदिर प्राचीन भारत के सबसे महत्वपूर्ण मंदिरों में से एक है।
माँ मीनाक्षी का यह अम्मन मंदिर को विश्व के नए सात अजूबों के लिए नामित किया गया है।
4- मंदिर का मुख्य गर्भगृह 3500 वर्ष से अधिक पुराना माना जा रहा है।
यह मंदिर भी भारत के सबसे अमीर मंदिरों में से एक है।
हिंदू पौराणिक ग्रंथों के अनुसार भगवान शिव सुंदरेश्वर रूप में अपने गणों के साथ पाड्य राजा मलयध्वज की पुत्री राजकुमारी मीनाक्षी से विवाह रचाने मदुरै नगर आए थे।
क्योंकि मीनाक्षी देवी मां पार्वती का रुप हैं।
5- इस विशाल भव्य मंदिर का स्थापत्य एवं वास्तु भी काफी रोचक है।
जिस करण माँ का यह मंदिर को सात अजूबों में नामांकित किया गया है। इस इमारत में 12 भव्य गोपुरम है, जिन पर महीन चित्रकारी की है।
इस मंदिर का विस्तार से वर्णन तमिल साहित्य में प्रचीन काल से होता आया है।
6- वर्तमान में जो मंदिर है यह 17वीं शताब्दी में बनवाया गया था।
मंदिर में आठ खंभो पर आठ लक्ष्मीजी की मूर्तियां अंकित हैं।
इन पर भगवान शंकर की पौराणिक कथाएं उत्कीर्ण हैं।
यह मंदिर मीनाक्षी या मछली के आकार की आंख वाली देवी को समर्पित है। मछली पांड्य राजाओं को राजचिह्न है।